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________________ दोनों नित्य प्रभु के पास रहनेवाले शासन देवता हुए। उस समय वहाँ उपकार के योग्य ऐसे लोगों के बिल्कुल अभाव से परोपकार परायण और जिनका प्रेमबंधन क्षीण हो गया ऐसे प्रभु ने वहाँ से विहार किया । ( तीर्थंकर प्रभु की देशना निष्फल नहीं जाती, फिर भी वीर प्रभु की प्रथम देशना में किसी ने भी विरतिभाव ग्रहण न करने से निष्फल गई, यह आश्चर्य समझना । ) (गा. 3 से 14 ) पश्चात् 'मेरे तीर्थंकर नाम गोत्र नामक बड़ा कर्म वेदना हैं, वह भव्य जंतुओं को प्रतिबोध देन से अनुभव करने योग्य है' ऐसा विचार करके असंख्य कोटि देवताओं से परिवृत और देवताओं से संचरित सुवर्णकमल पर न्यास करते प्रभु दिन की भांति देवताओं के उद्योत से रात्रि भी प्रकाशित होने पर, बाहर योजन के विस्तार वाली, भव्य प्रणियों से अलंकृत एवं यज्ञ के लिए एकत्रित हुए प्रबोध के योग्य गौतमादिक अनेक शिष्यों से सेवित अपापा नामक नगरी में आए। उस पुरी के नजदीक महासेनवन नामक उद्यान में देवताओं ने एक सुंदर समवसरण की रचना की । पश्चात् जिन्होंने सर्व अतिशय प्राप्त किये हैं, ऐसे और सुर और असुरों से स्तुत्य प्रभु ने पूर्व द्वार से उस समवसरण में प्रवेश किया। बत्तीस धनुष ऊंचे रत्नों के प्रतिच्छंद जैसे चैत्यवृक्ष को तीन प्रदक्षिणा दी। 'तीर्थाय नमः' ऐसा उच्चारण करके, आर्हती मर्यादा को पालकर प्रभु पादपीठ युक्त पूर्व सिंहासन पर बिराजे । भक्तिवंत देवताओं ने प्रभु की महिमा से ही अन्य तीन दिशाओं में प्रभु के प्रतिरूप किये। इस अवसर पर सर्व देवता तथा मनुष्य आदि योग्य द्वार से समवसरण में प्रवेश करके प्रभु के बदन को निरखते निरखते अपने योग्य स्थान पर बैठे। तब इंद्र ने भक्ति से रोमांचित शरीर से प्रभु को नमन करके अंजलीबद्ध होकर निम्न प्रकार से स्तुति की । (गा. 15 से 25 ) हे प्रभु! लावण्य से पवित्र शरीर वाले और नेत्र को अमृतांजन रूप ऐसे आपके विषय में मध्यस्थ रहना वह भी दोष का हेतु है, तो द्वेष रखने की तो बात ही क्या करनी ? 'कोपादिक से उपद्रव करने वाले (क्रोधी आदि) वे भी आपके प्रतिपक्षी है ऐसी लोकवार्ता क्या विवेकी लोग करते हैं ? अर्थात् नहीं करते आप विरक्त हैं, इससे जो रागवान आपके विपक्षी हों, वे विपक्ष ही नहीं । क्योंकि सूर्य की विपक्षी क्या जुगनु हो सकता है ? लवसत्तम ( अनुत्तर वासी) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व ) 114
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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