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________________ मेरी दुर्बुद्धि से ठगकर स्वर्ग के विलास सुख को छोड़कर शाप से भ्रष्ट हुए के समान में कितने समय तक पृथ्वी पर फिरा।" ऐसा विचार करके वह देव प्रभु को नमन करके अंजलिबद्ध होकर लज्जित हुआ और म्लान मुख से इस प्रकार बोला कि 'हे स्वामिन्! शक्र इंद्र ने सुधर्म सभा में जैसी आपकी प्रशंसा की थी, वैसे ही प्रभु आप हो। उनके वचनों पर श्रद्धा न करके मैंने आप पर बहुत से उपद्रव किये, तथापि आप सत्य प्रतिज्ञ और मैं भ्रष्ट प्रतिज्ञ हुआ हूँ। मैंने यह अच्छा नहीं किया। इसलिए हे क्षमानिधि! आप मेरा यह अपराध क्षमा करें। अब मैं उपसर्ग देना छोड़कर खेदित होकर देवलोक में जा रहा हूँ। आप भी निःशंक होकर ग्राम, आगर और पुर आदि में सुखपूर्वक विहार करो। अब आप इस गाँव में भी भिक्षा के लिए खुशी से प्रवेश करो और अदूषित आहार ग्रहण करो। पूर्व में जो दूषित आहार मिलता था, वह दोष मुझ से ही उत्पन्न किया हुआ था।' प्रभु ने फरमाया 'हे संगमदेव! तू हमारी चिंता छोड़ दे। हम किसी के भी आधीन नहीं हैं। हम तो स्वेच्छा से विहार करते हैं। इस प्रकार कहकर वीरप्रभु को प्रणाम करके वह अधम देव पश्चात्ताप करता हुआ इंद्रपुरी की ओर चल दिया। इधर सौधर्म देवलोक में इतने समय तक सर्व देवगण आनंद और उत्साह रहित होकर उद्वेग के साथ रहे। शक्रेन्द्र भी सुंदर वेष और अंगराग छोड़कर तथा संगीतादिक से विमुख होकर अति दुःखी होता हुआ मन में चिंतन करने लगा कि- 'अहो! प्रभु को हुए इन सभी उपसर्गों का निमित्त मैं हूँ। क्योंकि जब मैंने प्रभु की प्रशंसा की, तब ही वह देव कोपायमान हुआ। इस प्रकार चिंता करते हुए प्रभु को छः महिने बीत गये, तब पाप रूपी पंक से मलिन, जल स्पर्शवाले दर्पण की तरह कांति के प्राग्भार रहित, प्रतिज्ञा भ्रष्ट, मंद इंद्रियों वाला, और लज्जा से नेत्रों को भींचता हुआ वह संगम इंद्र से अधिष्ठित ऐसी सुधर्मा सभा में आया। संगमक को देखकर इंद्र उससे पराङमुख हो गए और उच्च स्वर में बोले-“अहो! सर्व देवों! मेरे वचन सुनो- यह संगमक महापापी और कर्मचंडाल है। इसका मुख देखने में भी पाप लगे, इससे यह देखने योग्य भी नहीं है। इसने अपने स्वामी की बहुत कदर्थना करके मेरा बड़ा अपराध किया है। परंतु अब जब यह संसार से ही भयभीत नहीं हुआ तो भला मुझ से कैसे भय लगेगा? मैं जानता हूँ कि, अर्हन्त प्रभु अन्य की सहायता से तप करते नहीं है, इसलिए इस पापी को मैने इतने समय तक दंड दिया नहीं। परंतु अब तो इस दुष्ट देव को इस देवलोक से ही निकाल देना योग्य हैं।" इस प्रकार त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 91
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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