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________________ के प्रासाद में दिव्यवेश से सुसज्जित हो राजकुमारी कनकवती अकेली ही किसी देवता के सान्निध्य में बैठी है। यह सुनकर राजकुमारी को वहाँ बैठी हुई जानकर जो दासी आई थी उस पक्षद्वार के मार्ग से ही वसुदेव उस ओर जाने के लिए बाहर निकले ओर प्रभदवन में आए। वहाँ सात भूमिका वाला और घूमता ऊँचा किल्लेवाला वह प्रासाद देखा। तब धीरे धीरे वसुदेव ऊपर चढ़े। तब सातवीं भूमिका पर श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठी हुई वह दिखाई दी। उसने कल्पलता की तरह दिव्य अलंकार और वस्त्र धारण किये थे। सर्वऋतुओं के पुष्प के आभरण से वह साक्षात् वन लक्ष्मी जैसी दिखाई दे रही थी। जन्म से विधाता की सृष्टि में वह रूपलक्ष्मी की सर्वस्व थी। अकेली होने पर भी परिवार वाली लगती थी और चित्रपट में आलेखित पुरूष के साथ तन्मय होकर देख रही थी। वसुदेव जब उसके समक्ष जाकर खड़े रहे, तब जाने दूसरा चित्रपट का रूप हो, ऐसे उन दशार्द्ध को देखकर द्रष्टागमन के ज्ञान से वह प्रातःकाल के कमल के समान विकसति हो गई। वसुदेव को देखकर हर्षित होकर उच्छवासन लेती हुई कनकवती क्षण में वसुदेव को और क्षण में चित्रपट को बार बार अश्रांत नेत्रों से देखने लगी। कमल की भांति नेत्रों से वसुदेव का उर्ध्वान करती हुई वह राज बाला तत्काल सिंहासन से उठी और अंजलिबद्ध हो बोली- हे सुंदर ! मेरे पुण्य से तुम यहाँ आए हो, मैं तुम्हारी दासी हूँ। इस प्रकार कहती हुई वह वसुदेव को नमन करने को तत्पर हुई, तब नमन करती हुई उसे रोककर वसुदेव ने कहा, महाशय। मैं किसी का भृत्य हूँ और आप स्वामिनी हैं अतः मुझे नमन मत करो। जो नमन करने योग्य हो, उसे प्रणाम करना ही योग्य है। फिर जिसका कुल जाना नहीं, ऐसे मेरे जैसे मनुष्य के विषय में तुम ऐसा अनुचित मत करो। कनकवती बोली- आपका कुल आदित्य सब मैंने जान लिया है और आप ही मेरे पति हो। देवता द्वारा कथित और इस चित्रपट में आलेखित भी आप ही हो। (गा. 146 से 159) वसुदेव बोले – भद्रे! मैं तुम्हारा पति नहीं हूं। परंतु देवता ने जो मुझे आपका पति कहा है, उस पुरूष का मैं तो सेवक हूँ। वह पुरूष कौन है, सुनो। इंद्र के उत्तर दिशा के स्वामी लोकपाल और तुम्हारे मुखकमल में भ्रमररूप जगत विख्यात कुबेर तुम्हारे स्वामी है और मैं उनका सेवक साथ ही दूत हूँ। उनकी आज्ञा से आपको विनति कर रहा हूँ कि आप उन महापुरूष के अनेक देवियों से सेवित मुख्य पटराणी बनो। तब घनद के नामग्रहणपूर्वक उनका नमस्कार करके 86 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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