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________________ प्रभु की पूजा संपन्न करके चैत्य के बाहर आकर यथारूचि चला। इतने में उसने वसुदेव को देखा। जिससे वह सोचने लगा कि इस पुरूष की कोई लोकोत्तर आकृति है, जैसी आकृति देवताओं में असुरों में और खेचरों में भी दिखाई नहीं देती। ऐसे अनुपम सुंदर आकृतिवाले वसुदेव को कुबरे ने संभ्रमित होकर विमान में बैठे बैठे ही अंगुली की संज्ञा से बुलाया। मैं मनुष्य हूँ और परम आर्हत और महर्द्धिक देव है ऐसा विचार करते करते अभीरु और कौतुकी वसुदेव उसके पास गये। स्वार्थ में तृष्णा वाले धनद ने वसुदेव का मित्र के तुल्य प्रिय अलाप आदि से सत्कार किया। तब प्रकृति से ही विनीत और सत्कारित वसुदेव ने अंजलि बद्ध हो, उनसे कहा कि आज्ञा दीजिए, मैं आपका क्या अभीष्ट करूं? कुबरे ने कर्णप्रिय मधुर वाणी से कहा – महाशय! अन्य से न साधा गया ऐसा मेरा दौत्य कर्म साध्य करो। इस नगर में हरिशचंद्र राजा के कनकवती नाम की एक पुत्री है, उसके पास जाकर मेरी और से कहो कि देवराज इंद्र के उत्तर दिशा के पति लोकपाल कुबेर तुझसे विवाह करना चाहते हैं। तू मानुषी है परंतु देवी हो जा। मेरे अमोघ वचन से तू पवन के सदृश अस्खलित गति से कनकवती से विभूषित ऐसे प्रदेश में जा सकेगा। तब वसुदेव ने अपने आवास में जाकर दिव्य अलंकारों को त्याग कर एक दूत के लायक मलिन वेश धारण किया। (गा. 106 से 121) ___ ऐसे वेश को धारण करके जाते हुए वसुदेव को देखकर कुबेर ने कहा हे भद्र! तूने सुंदर वेश कैसे छोड़ दिया? सर्व वैभव स्थलों पर आंडबर ही पुजाता है वसुदेव ने कहा मलिन हो या उज्जवल वेश से क्या काम है? दूत का मंडन तो वाणी है। और वह वाणी मुझ में है। यह सुनकर कुबेर ने कहा जा! तेरा कल्याण हो तब वसुदेव निःशंक रूप से हरिशचंद्र राजा के गृहांगण में आये और हाथी घोड़े रथ और योद्धाओं से अवरूद्ध ऐसे राजद्वार में प्रवेश किया। तत्पश्चात् किसी का दृष्टिगोचर नहीं होते हुए और अस्खलित गति से वसुदेव अंजनसिद्ध योगी की भांति आगे चले। अनुक्रम से परिकर बाँधकर हाथ में छड़ी लेकर खड़े नजरों को अवरूद्ध राजगृह के प्रथम गढ में उन्होंने प्रवेश किया। वहाँ इंद्रनील मणिमय पृथ्वीतल वाला और चलित कांति से तरंगित जल सहित वाणी के भ्रम को उत्पन्न करता एक राजगृह उसने देखा। उसमें दिव्य आभरणों को धारण करने वाली और अप्सरा जैसी स्वरूपवान समानवय की स्त्रियों का वृंद उन्होंने देखा। वहाँ वसुदेव ने सुवर्णमय स्तंभवाली, मणिमय प्रतलियों वाली और चलायमान ध्वजाओं से युक्त ऐसी दूसरी 84 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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