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________________ और सुवर्ण कुंभ नाम के दो चारण मुनियों के पास व्रत ग्रहण किया। मेरी मनोरमा स्त्री ने मुझे सिंहयशा और वराहग्रीव दो पुत्र हुए। वे भी मेरे जैसे ही पराक्रमी थे विजय सेना नामक दूसरी स्त्री से मेरे गायन विद्या में निपुण ऐसी गंधर्वसेना नाम की एक रूपवती पुत्री हुई। दोनों पुत्रों को राज्य, युवराज पद देकर मैंने भी उन्हीं पिता के गुरू के पास व्रत ग्रहण कर लिया। पश्चात् लवणसमुद्र के मध्य में रहा हुआ यह कुंभकंठक नामक द्वीप है और द्वीप में यह कर्के टक नाम का गिरी है। यहाँ रहकर मैं तपस्या करता हूँ। अब तू बता चारूदत! तू यहाँ कैसे आ गया? मैंने मेरा महाविषम वृत्तांत कह सुनाया। इतने में रूपसंपति में उनके समान ही दो विद्याधर आकाशमार्ग से वहाँ आए। उन्होंने मुनि को प्रणाम किया। उनके रूप सादृश्य से ये दोनों इनके ही पुत्र हैं, ऐसा जाना। तब वे महामुनि बोले इस चारूदत को प्रणाम करो। वे हे पिता! हे पिता! कहकर मेरे चरणों में झुक गये और मेरे पास बैठे। इतने में वहाँ एक विमान आकाश से उतरा। उसमें से एक देव ने उतर कर प्रथम मुझे नमस्कार किया और बाद में मुनि को प्रदक्षिणा पूर्वक वंदना की। उन दोनों ने उस देव से पूछा कि तुमने वंदना में उल्टाक्रम कैसे किया ? देवता ने कहा कि ये चारूदत मेरे धर्माचार्य हैं इसी से मैंने इनको प्रथम नमस्कार किया है। अब मैं अपना वृत्तात तुमको कहता हूं, वह सुनो। (गा. 270 से 274) काशीपुर में दो संन्यासी रहते थे, उनके सुभद्रा ओर सुलसा नामकी दो बहनें थी। वे वेद वेदांग में पारगामी थीं। उन्होंने बहुत से वादियों को पराजित किया था। एक बार याज्ञवल्क्य नाम का कोई संन्यासी उनके साथ वाद करने को आया। जो हार जाए, वह जीतने वाले का सेवक होकर रहेगा ऐसी प्रतिज्ञा करके वाद करने पर याज्ञवल्क्य ने सुलसा को जीत कर उन्होंने उसे अपनी दासी बनाया। जब वह तरूणी सुलसा उनकी दासी होकर सेवा करने लगी तब नवीन तारूण्य वाला वह याज्ञवल्क्य काम के वश में हो गया। नगर के समीप रहकर वह हमेशा उसके साथ क्रीड़ा करने लगा। अनेक दिन के पश्चात त्रिंदडी से उसे एक पुत्र हुआ जो कि याज्ञवल्क्य से होना चाहिए। लोगों के उपहास से भयभीत होकर याज्ञवल्क्य और सुलसा उस पुत्र को पीपल के वृक्ष के नीचे रख कर चले गये। यह समाचार जानकर समुद्रा वहाँ आई ओर वहाँ अनायास ही पीपल के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 55
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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