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________________ एक बार मेरा मित्र धूमशिख मेरी स्त्री का अभिलाषी हुआ है, ऐसी उसकी चेष्टाओं से मैंने जाना । तथापि उसके साथ विहार करता मैं यहाँ आया। वहीं उसने मुझ प्रमादी को कीलों से जड दिया और सुकुमालिका का हरण कर दिया। इस महाकाष्ट में से तुमने मुझे छुड़ाया है तो वहाँ अब मैं तुम्हारा क्या काम करूं कि जिससे हे मित्र! तुम जैसे अकारण मित्र से मैं उऋण हो सकूँ। (गा. 199 से 203) मैनें कहा, हे सुंदर! तुम्हारे दर्शन से मैं तो कृतार्थ हो गया हूँ यह सुनकर तत्काल ही वह खेचर उड़कर चला गया और मैं वहाँ से घर आ गया मित्रों के साथ क्रीड़ा करने लगा । अनुक्रम से माता पिता के नेत्रों को प्रसन्नता प्रदान करता मैंने यौवन वय में पदार्पण किया। माता पिता की आज्ञा से मैं शुभ दिन में सर्वार्थ नामक मेरे मामा की मित्रवती पुत्री से विवाह किया । कला की असाक्ति से मैं उस स्त्री से भोगासक्त नहीं हुआ, जिससे मेरे माता पिता मुझे मुग्ध जानने लगे। उन्होंने मुझे चातुर्य प्राप्ति के लिए श्रृंगार की ललित चेष्टा में जोड़ दिया । फलस्वरूप में उपवनों में स्वेच्छा से भ्रमण करने लग गया। ऐसे करते करते मैं कलिंग सेना की पुत्री वसंत सेना नाम की वेश्या के साथ उसके घर पर बारह वर्ष तक रहा। वहाँ रहकर मैंने अज्ञानता से सोलह करोड़ सुवर्ण द्रव्य उड़ा दिये । अंत में कलिंग सेना ने मुझे निर्धन जानकर उसके घर से बाहर निकाल दिया। वहाँ से घर आने पर माता-पिता का निधन हुआ जानकर धैर्य से व्यापार करने के लिए मेरे स्त्री के आभूषण ग्रहण किये एवं मेरे मामा के साथ व्यापार के लिए चलकर मैं उशीरवर्ती नगर में आया । (गा. 204 से 212) वहाँ आभूषणों को बेचकर मैंने कपास खरीदा। वह लेकर मैं ताम्रलिप्ती नगर में जा रहा था कि मार्ग में दावानल में वह कपास भी जल गया। जिससे मेरे मामा ने मुझे निर्भागी जानकर छोड़ दिया । वहाँ से अश्व पर बैठकर में अकेला ही पश्चिम दिशा की ओर चल दिया । मार्ग में मेरा अश्व भी मर गया, अतः मैं पदचारी हो गया। लंबी मंजिल से ग्लानि पाता हुआ भूख और तृष्णा से पीडित हुआ मैं वणिक लोगों से आकुल होकर प्रियंगु नगर में आया वहाँ मेरे पिता के मित्र सुरेंद्रदत ने मुझे देखा । वह मुझे अपने घर ले गया । वहाँ वस्त्र और भोजन से सत्कार प्राप्त कर पुत्र की तरह मैं सूखपूर्वक रहने लगा । उनके पास से एक लक्ष त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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