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________________ उन्होंने बलराम से कहा कि भाई! अतितृषा से मेरा तालु सूख रहा है। इसलिए इस वृक्ष की छाया वाले वन में भी मैं चलने में शक्तिवान् नहीं हूँ। बलभद्र ने कहा, 'भ्राता! मैं जल्दी-जल्दी जल के लिए जाता हूँ, इसलिए तुम यहाँ इस वृक्ष के नीचे विश्रांत और प्रमादरहित होकर क्षणभर के लिए बैठो।' इस प्रकार कहकर बलभद्र गये, तब कृष्ण एक पैर को दूसरे जानु पर चढ़ाकर पीला वस्त्र ओढ़कर मार्गगत वृक्ष के नीचे सो गए और क्षणभर में निद्राधीन हो गये। राम ने जाते-जाते भी कहा था कि 'प्राणवल्लभ बंधु! जब तक मैं वापिस लौटूं, तब तक क्षणभर के लिए भी तुम प्रमादी मत होना।' पश्चात् ऊँचा मुख करके बलभद्र बोले- 'हे वनदेवियों! यह मेरा अनुज बंधु तुम्हारी शरण में है। इसलिए इस विश्ववत्सल पुरुष की रक्षा करना।' ऐसा कहकर राम जल लेने गए। इतने में हाथ में धनुष धारण किए हुए, व्याघ्रचर्म के वस्त्रों के पहने हुए और लंबी दाढ़ी वाला शिकारी बना हुआ जराकुमार वहाँ आया। शिकार के लिए घूमतेघूमते जराकुमार ने कृष्ण को इस अवस्था में सोये हुए देखा। जिससे उसने मृग की बुद्धि से उनके चरण तल पर तीक्ष्ण बाण मारा। बाण लगते ही कृष्ण वेग से बैठ होकर बोले कि 'अरे! मुझ निरपराधी को छल करके कहे बिना चरणतल में किसने बाण मारा ? पहले कभी भी जाति और नाम कहे बिना किसी ने मुझ पर प्रहार किया नहीं, इसलिए जो भी हो, वह अपना गोत्र और नाम कहे। इस प्रकार का प्रश्न सुनकर जराकुमार ने वृक्ष की घटा में छुपकर ही कहा 'हरिवंशरूपी सागर में चंद्र जैसे दसवें दशार्द वसुदेव की स्त्री जरादेवी के उदर से जन्म लिया हुआ मैं जराकुमार नामका पुत्र हूँ। राम कृष्ण का अग्रज बंधु हूँ, और श्री नेमिनाथजी के वचन सुनकर कृष्ण की रक्षा करने के लिए (मुझ से उनका वध न हो इसलिए) मैं यहा इस जंगल में आया हूँ। मुझे यहाँ रहते बारह वर्ष व्यतीत हो गए। परन्तु आजतक मैंने यहाँ किसी मनुष्य को देखा नहीं है। ऐसा बोलने वाले तुम कौन हो? यह कहो।' कृष्ण बोले- अरे पुरुष व्याघ्र बंधु! यहाँ आ। मैं तुम्हारा अनुज बंधु कृष्ण ही हूँ कि जिसके लिए तुम वनवासी हुए हो। हे बांधव! दिग्मोह से अति दूर मार्ग का उल्लंघन करने वाले पथिक की भांति तुम्हारा बारह वर्ष का प्रवास वृथा चला गया।' यह सुनकर क्या यह कृष्ण है ? ऐसा बोलता हुआ जराकुमार उनके समीप आया और कृष्ण को देखते हुए मूर्छित हो गया। तब मुश्किल से चेतना पाकर जराकुमार ने करुण स्वर में रुदन करते हुए पूछा, अरे भ्रात! यह क्या हो गया? तुम यहाँ कैसे? क्या द्वारिका दहन त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 295
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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