SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक दिन मधुराजा मंत्रियों के साथ न्याय कार्य में बैठा था, उसमें बहुत सा समय व्यतीत हो जाने के कारण भी उसका निराकरण किये बिना चंद्राभा के मंदिर में गया। चंद्राभा ने पूछा, आज देर से कैसे आए? तब उन्होंने कहा, आज एक व्यभिचार संबंधी वाद का न्याय करना था, उसमें मुझे रूकना पडा। चंद्राभा ने हंस कर कहा, वह व्यभिचारी पूजने योग्य है। मधुराजा ने कहा, व्यभिचारी कैसे पूजनीय हो सकता है? उसको तो सास्ती स्वरूप दंड देना चाहिए। चंद्राभा बोली यदि तुम ऐसे न्यायवान् हो तो सबसे पहले तो तुम्ही व्यभिचारी हो, क्या यह नहीं जानते? यह सुनकर मधुराजा प्रतिबोध को प्राप्त हुआ, लज्जित होकर गया। इधर वह कनकप्रभ राजा चंद्राभा रानी के वियोग से पागल होकर गाँव-गाँव में भटकता और बालकों से घिरा हुआ उसी नगर के राजमार्ग पर नाचता गाता हुआ निकला। उसे देखकर चंद्राभा विचार करने लगी कि अहो! मेरा पति मेरे वियोग से इस दशा को प्राप्त हुआ है, तो मेरे जैसी परवश स्त्री को धिक्कार है। __ (गा. 210 से 215) ऐसा चिंतन करके उसने मधुराजा को अपना पति बताया, तब उसको देखकर अपने दुष्ट काम के लिए मधु को अति पश्चाताप हुआ। इससे उसी क्षण मधु ने धुंधु नाम के अपने पुत्र को राज्य सौंप कर कैटभ के साथ विमलवाहन मुनि के पास दीक्षा ली। वे हजारों वर्ष तक उग्र तप करके द्वादशांगी के अध्येता एवं सदा साधुओं की वैयावृत्य करते थे। अंत में अनशन करके सर्व पापों की आलोचना करके वे दोनों मृत्यु प्राप्त करके महाशुक्र देवलोक में सामानिक देवता हुए। राजा कनकप्रभ ने क्षुधा से पीड़ित हो तीन हजार वर्ष व्यर्थ गंवा कर मृत्यु प्राप्त की और ज्योतिष देवों में धूमकेतु नाम का देव हुआ। अवधिज्ञान से पूर्वभव का बैर जानकर मधु के जीव की तलाश करने लगा, परंतु मधु तो सातवें देवलोक में महर्द्विक देव होने से उसको दिखाई नहीं दिया। वह वहाँ से च्यव कर मनुष्य भव प्राप्त कर तापस हुआ। उस भव में कालतप करके मृत्यु के पश्चात वैमानिक देवता हुआ। तथापि उस भव में भी मधु को देखने में समर्थ नहीं हुआ। पुनः वहाँ से च्यव कर संसार में परिभ्रमण करके कर्म योग से ज्योतिष देवों में पुनः धूमकेतु नामक देव हुआ। उस समय मधु का जीव महाशुक्र देवलोक में से च्यवकर कृष्ण वासुदेव की पटरानी रूक्मिणी के उदर में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। वह धूमकेतु पूर्व के बैर से उस बालक को जन्मते ही हरण कर ले गया। उसे त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 191
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy