SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के देखने में आया। उन सभी ने उन केवली मुनि को द्वादशावर्त्त वंदना करके वृक्ष मूल में बटोही बैठे वैसे उनके चरण कमल के समीप बैठे। उस समय इन सिंहकेसरी मुनि के गुरू यशोभद्रसूरि वहाँ आये उन्होंने उन्हें केवल हुए जानकर उनकी वंदना की और उनके सन्मुख बैठे। तब करूणारस के सागर श्री सिंहकेसरी मुनि ने अधर्म के मर्म को बांधने वाली देशना दी। (गा. 638 से 645) लख चौरासी योनी के इस संसार में भ्रमण करते हुए प्राणियों को मनुष्य जन्म प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ है, उस मनुष्य जन्म को प्राप्त करके, स्वयं बोए हुए वृक्ष के समान अवश्य उसको सफल करना चाहिए । हे सद्बुद्धि मनुष्यों ! उस मनुष्यजन्म का मुक्तिदायक ऐसा जीवदया प्रधान अर्हत धर्मरूप फल है, उसे तुम ग्रहण करो। इस प्रकार श्रोताओं के श्रवण में अमृत जैसा पवित्र अर्हत धर्म कहकर पश्चात तापसों के कुलपति के संशय छेदने के लिए उन महर्षि ने कहा इस दमयंती तुम जो धर्म कहा है, वही उपयुक्त मार्ग है। यह पवित्र स्त्री अर्हत धर्म के मार्ग मुसाफिर है यह अन्यथा नहीं कहती । यह स्त्री जन्म से ही महासती और अर्हती है। जिसकी तुमने प्रतीति देखी हुई है । जैसे कि इसने रेखाकुंड में मेघ को गिरता हुआ रोक रखा था। उसके सतीत्व एवं आर्हती पन से संतुष्ट हुए देवता सदा उसका सानिध्य करते हैं, फलस्वरूप अरण्य में भी उसका कुशल होता है। (गा. 646 से 651) पहले भी हुँकार मात्र से इस सार्थवाह का सार्थ चोर लोगों से बच गया था। इससे अधिक क्या प्रभाव कहूँ ? केवली भागवत इस प्रकार कह ही रहे थे कि इतने में कोई महद्विक देव वहाँ आया। उसने केवली को वंदना की तथा मृदु वाणी से दमयंती के प्रति बोले- हे भद्रे ! इस तपोवन में मैं कुलपति का परि नाम का शिष्य था जो तप के तेज से अत्यधिक दुशसद था । मैं हमेशा पंचाग्नि को साधता था, तो भी उस तपोवन के तापस मुझे पूजते नहीं थे, तथा वचन से भी अभिनंदन नहीं करते थे । इससे क्रोधरूप राक्षस से आविष्ट हुआ मैं उस तपोवन को छोड़ शीघ्र ही अन्यत्र चल दिया । चलते चलते सघन अंधकार वाली रात्रि पड़ गई उस समय त्वरित गति से मैं चला जा रहा था । अकस्मात कोई हाथी जैसे किसी खाडी में गिर जाता है, उस प्रकार मैं भी गिरिकंदर में गिर पड़ा। (गा. 652 से 657) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 117
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy