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________________ समान शोभायमान होने लगा। चारों तरफ बरसात बरसने से उस गिरी की गुफाएँ मेघ की शोभा से पूर्ण हो गई हो, वैसे जल से भर गई। उसका यह प्रभाव देखकर सभी सोचने लगे जरूर यह कोई देवी है, क्योंकि मानुषी में ऐसा रूप और ऐसी शक्ति नहीं होती। तब स्वच्छ बुद्धिवाले बसंत सार्थवाह ने उससे पूछा- भद्रे! आप किस देव की पूजा करती हो? यह कहो। दवदंती बोलीसार्थवाह ये अरिहंत परमेश्वर हैं, ये तीन लोक के नाथ और भव्य प्राणियों की प्रार्थना में कल्पवृक्ष रूप है। मैं उनकी ही आराधना करती हूँ। इनके प्रभाव से ही यहाँ निर्भय होकर रहती हूँ, और व्याघ्र आदि शिकारी प्राणी भी मेरा कुछ नहीं कर सकते। वैदर्भी ने बसंत सार्थवाह को अर्हत का स्वरूप एवं अहिंसा आदि अर्हत धर्म कह सुनाया। (गा. 622 से 630) बसंत ने तत्काल उस धर्म को स्वीकार कर लिया और हर्ष से दमयंती को कहा कि- तुम वास्तव में धर्म की कामधेनु हो। उस समय उसकी वाणी से अन्य तापस भी हेय और उपादेय के ज्ञाता होकर मानो चित्त में उसे पिरो लिया हो, वैसे धर्म को भावपूर्वक स्वीकारा और उस धर्म से अनुग्रहित होकर अपने तापस धर्म की निंदा करने लगे। क्योंकि जब पेयपान करने को मिले तो फिर उसे कांजी कैसे रूचे ? बसंत सार्थवाह ने वहाँ पर एक शहर बसाया और उसमें स्वंय ने एवं अन्य साहूकारों ने आकर निवास किया। वहाँ पांच सौ तापसों को प्रतिबोध प्राप्त हुआ, अतः वह नगर तापसपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अपने सच्चे स्वार्थ के ज्ञाता सार्थवाह ने अपने अर्थ द्रव्य को कृतार्थ करने के लिए उस नगर में श्री शांति नाथ जी का चैत्य बनवाया। वहाँ रहकर वह सार्थवाह, तापस और सर्व नगर जन अर्हत धर्म में परायण होकर अपना समय निगमन करने लगे। (गा. 631 से 637) एक समय दवदंती ने अर्ध रात्रि में पर्वत के शिखर पर सूर्य की किरणों जैसा प्रकाश देखा और उसके आगे पंतग की भांति उछलते और गिरते देव असुर और विद्याधरों को देखा। उनके जय जय शब्द के कोलाहल से जागृत हुए सर्व वाणिकों और तापसों ने ऊपर देखा। वैदर्भी उन वणिकजनों और तापसों को साथ ले भूमि और अंतरीक्ष के मध्य मानदंड के समान उंचे उस गिरी पर चढी। वहाँ पहुंचने पर श्री सिहंकेसरी मुनि को केवल ज्ञान का महात्म्य उसके 116 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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