SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मम्मण राजा का जीव देवलोक में से च्यवकर इस जंबूदीप के भरतक्षेत्र के बही नाम के देश में पातनपुर नाम के नगर में धम्मिल नाम के आहिर की स्त्री रेणुकांता के उदर से धन्य नामक पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। वह बहुत पुण्य का पात्र था। वीरमती का जीव देवलोक से च्यव कर उस धन्य की धूसरी नाम की स्त्री हुई। धन्य हमेशा अरण्य में जाकर महिषी भैंसों को चराता था क्योंकि महिषी चराना आहीर लोगों का प्रथम कुलव्रत है । अन्नदा प्रवासियों की वैरी रूप वर्षाऋतु आई। यह मेघा छन्न घारे वर्षा दिन में भी अमावस्या की रात्रि बता रही थी। गहन वृष्टि के द्वारा जिसके आकाश को यंत्रधारा गृह जैसा कर दिया था। जिससे उघत हुए मेंढक के शब्दों से दुर्दर जाति के बाघ का भास होता था । जो हरित घास से पृथ्वी को केशपाशवाली करती थी । वृष्टि के कारण बढी हुई सेवाल द्वारा जिसमें सारी पृथ्वी फिसलनी हो गई थी, जिसमें संचार करते पाथजन के चरण जानु तक कीचड़ से भर जाते थे । और विद्युत के बार बार आर्वतन से अंतरिक्ष में उल्कापात सा दिखाई देता था । इस प्रकार वर्षाऋतु में मेघ बरसता था, उस समय कीचड के संपर्क से हर्ष का नाद करती भैंसों को चराने के लिए धन्य अरण्य में गया। बरसात के जल को निवारे ऐसा छत्र सिर पर रख कर भैंसो को यूथ को अनुसरना धन्य अटवी में पर्यटन करने लगा। (गा. 244 से 253) इस प्रकार परिभ्रमण करते हुए एक पैर पर खड़े काउसग्ग ध्यान में निश्चल एक मुनि धन्य को दिखाई दिया। वे मुनि उपवास से कृश हो गये थे । वनहस्ती की तरह वृष्टि को सहन कर रहे थे और पवन से हिलाए हुए वृक्ष की तरह उनका सर्व अंग शीत की पीड़ा से काँप रहा था। इस प्रकार परीषह को सहन करते उन मुनि को देख धन्य को दया आ गई । फलस्वरूप शीघ्र ही उसने अपनी छत्री उनके मस्तक पर रख दी। जब घन्य ने अनन्य भक्ति से उनके ऊपरछत्री धरी तब बस्ती में रहते हों, ऐसे उन मुनि का वृष्टि कष्ट दूर हो गया । दुर्मद मनुष्य जैसे मदिरा पान से निवृत्त नहीं होता उसी प्रकार मेघ बरसने से किंचित मात्र भी निवृत्त नहीं हुआ तथापि वह श्रद्धालु धन्य छत्री धर रखने से उस पर कुपित नहीं हुआ। पश्चात् महामुनि वृष्टि में करे हुए ध्यान से जब निवृत्त हुए तब मेघ भी क्रमयोग से वृष्टि से निवृत हुए | पश्चात् धन्य ने उन मुनि को प्रणाम करके चरण संवाहना अंजलिबद्ध होकर पूछा हे महर्षि इस समय त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 92
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy