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________________ परोपकार बुद्धि वाले उन मुनि उनको आर्द्र हृदय वाले जानकर जीवदया प्रधान श्री अर्हत ने धर्म का उपदेश दिया। तब जन्म से लेकर अब तक धर्म के अक्षरों से जिनके कान किंचित मात्र भी बिंधे नहीं, ऐसे वे दंपती तब से ही कुछ धर्म से अभिमुख हुए। उन्होंने भक्ति पान से भक्तिपूर्वक उन मुनि की वंदना की प्रिय अतिथि के सदृश उनको योग्य सम्मानपूर्वक अच्छे स्थान में निवास कराया और राज स्वभाव द्वारा दूसरे लोगों का कष्ट निवारण करके वे दंपती स्वंय ही निंरतर उन मुनि को सेवावृत करने लगे। कर्म रोग से ऐसे उन दंपती ने धर्म ज्ञानरूप औषधि देकर उनकी संपति लेकर अनेक समय बाद वे मुनि अष्टापद गिरी पर गये। उन मुनि के बहुकाल के संसर्ग से श्रावक के व्रत ग्रहण कर कृपण पुरूष जैसे घन को संभालता है, वैसे ही वे यत्न से व्रतों का पालन करने लगे। (गा. 216 से 225) एक बार शासन देवी वीरमती को धर्म में स्थिर करने के लिए अष्टापद गिरी पर ले गई। धर्मिष्ट लोगों को क्या क्या लाभ नहीं होता? अर्थात सब लाभ होता है। वहाँ सुर असुर से पूजित अर्हत प्रतिमा को देखकर वीरमती इस जन्म में ही मुक्त हो गई हो, ऐसे आनंद को प्राप्त हुई और अष्टापद पर चौबीस अरिहंत प्रभु के बिंबों को वंदन करके विद्याधरी की तरह पुनः अपने नगर में आ गई। पश्चात उस महान तीर्थ के अवलोकन से धर्म में स्थिर बुद्धि धारण करके उसने प्रत्येक तीर्थकर का ध्यान करके बीस बीस आचाम्ल आंबिल किये और भक्ति वाली उस रमणी ने चौबीस प्रभु के रत्न जडित सुवर्णमय तिलक कराये। पुनः एक बार वह वीरमति परिवार के साथ अष्टापदगिरी पर आई। वहाँ उसने चौबीस तीर्थकरों का स्नात्र पूर्वक अर्चन किया और फिर वे अर्हत प्रभु की प्रतिमाओं के ललाट पर लक्ष्मी रूप लता के पुष्प हों ऐसे पूर्व में निर्मित सुवर्ण के तिलक स्थापित किये। उस तीर्थ पर पधारे हुए चारण श्रमकों को यथायोग्य दान देकर उन्होंने पूर्व में की हुई तपस्या का उद्यापन किया। तब मानो कलार्थ हुई हो, वैसे चित में नृत्य करती हुई बुद्धिमती वीरमती वहाँ से अपने नगर में आई। वे दंपती जो कि शरीर से भिन्न भिन्न थे तथापि मन से धर्म में उद्यत होकर अत्यधिक समय व्यतीत करने लगे। अनुक्रम से आयु स्थिति पूर्ण होने पर समाधि मरण प्राप्त करके वे विवेकी दंपती देवलोक में देवदंपती देव देवी रूप में उत्पन्न हुए। (गा. 226 से 243) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 91
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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