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________________ ५१८ रत्नसागर. ॥ १ ॥ शासन नायक एही अरज है। दीजै दरश वमी वेर नईरे (वी० ) ||२|| आश दाशकी पूरन कीजै । चरण शरण लपटाइ रही रे ( वी० ) ॥ ३ ॥ इति पदम् ॥ * ॥ ॥ * ॥ ॥ ॥ * ॥ पुनः ॥ * ॥ ॥ * ॥ जिन जीसें मोरी ० ( इस चाल में ) ॥ सदा सहाई शांति जिने सर जवदुख दूर गमाय ( जलांजी मला जव० ) । विश्वशेनके कुलमें सुर तरु | अचिराके नंद कहाय ( न० ) । जनम भूमि हथा पुर जाके । मृ ग लंबन सुखदाय ( ० ॥ १ ॥ स० ) ॥ तीश अधिक दश धनुष प्रमा । काया कंचन सोनाय ( ० ) कुरुवंश कुल लाख बरश स्थित । केव लग्यांन बरदाय ( ० ॥ २ ॥ स० ) गर्न थकां प्रनु शांति करी जब । शांति नाथ पढ़ पाय ( ० ) जव जव जमतां शरणे आयो । अबतो करि सहाय ( ० ॥ ३ ॥ स० ) ज्युं पारेवा ऊपर तुमनें । करुणा अधिक कराय ( ० ) परतिख प्रनुपुर कलि कत्तामें । सहु जन बांबित दाय ( ० ॥ ४ ॥ स० ) मुक्तिकमल कहे शिवसुख दायक । संकट दूर पुलाय ( ० ॥ ५ ॥ स० ) इति कलिकत्ता मंगन श्री शांतिनाथजी स्तवनम्॥॥॥ || * || TF: || ❀ || ॥ * ॥ प्रभुजीकी महमा अजब बनीजी मारो मनको लियो रे लोनाय ( जलां जी पनु मनडोलियो रे जोनाय जी ) । विश्वशेन प्रचराजीके नं दा। शांतिनाथ मन नाय ( ० प्र० ) मस्तक मुगट काने युग कुंरुल । अंगियां रही (लां० प्र० ) ॥ १ ॥ मोहनी मूरत सोहनी सूरत सहु जनकं सुखदाय । नाम ग्रहण करतां जिनजीको । सुरगण पर्ने सहु पाय ( जलां० प्र० ) ॥ २ ॥ त उपद्रव दुख सहु टाले । नित प्रति मंगल थाय ( ० ) मुक्तिकमल कहै सुरतरु सरिखा । मनवंबित फल दा य (जलां० प्र० ) ॥ ३ ॥ इति द्वितीय शांतिनाथजी स्तवनम् ॥ ॥ ॥ ॥ * ॥ थ काती महोचव बधाई लि० ॥ ॥ ॥ * ॥ रथ चढ जाडु नंदन प्रावत है । ( इस चाल ) ॥ ॥ आज नगर में हरख बधाई । समवसरण प्रजु श्रावत है । ( ० ) धरम
SR No.032083
Book TitleRatnasagar Mohan Gun Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktikamal Gani
PublisherJain Lakshmi Mohan Shala
Publication Year1903
Total Pages846
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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