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________________ नियति थइ पूरी हिव जाइ, तिणकारण कोलाहल थाइ ॥१३॥ एय वचन सुरमति संभल्यो, कारण हेत करी संकल्यो। तदनंतर बोले सुरराइ, नमिरिषिराज प्रतें समभाइ ॥९४॥ पानिजलेंने वाजे वाउ, ए तुझ मंदिर दाझे.राउ । भगवन अंतेउर ताहरो, कांई विमासी सार न करो ॥९५॥ एय वचनमुणि० ॥१६॥ जीवू सुखें सुखें निरवहुं, हवो अवर न कांइ लहुं । मिथलानयूरी द्राझे जोइ, माहरो इहां न दाझे कोई ॥९७॥ पूत्र कलत्र छांड्या व्यापार, मुनिने प्रिय अप्रिय परिहार। सदाकालरिषिने कल्याण, निपरिग्रह एकाकीजाण ॥९८॥ एयवचन सुरपति० . ॥९९॥ पोल सहित मोटो प्राकार, बुरज जिहांकणे रहे झूझार। खाइ खणी ढंकली मंडाइ, पछे जाइं तु खत्रीराइ ॥२०॥ एय वचनमुणि० ।।२०१ ।। सुद्ध सहहणा पुर वासियो, सम संवेग बारणो कियो । तप.संबर कीधा आगले, खिमा रूप गढ चिहुं पाखलें ॥२॥ गुपति यंत्र नहु कोइ परभवे, धनुषपराक्रम कीधो हवे। ईर्या पण छके तनथी रता, बिहुंपासे बंधन सत्यता ॥३॥ अभिंतर तप चाढ्यो बाण, कर्म वेरी भेद्या सपराण । मुनिवर जीपें करि संग्राम, पाम्यो शिवगति अविन चलठाम ॥४॥ एय वचन सुरपति० ॥५॥ वासतिक शास्त्रना जाण बुलावे, वर्द्धमान घर एक करावे । वलभी तमु चिहुं दिसें कराइ, पछे जाय तू खत्रीराइ ॥६॥ एय वचनमुणि०॥७॥ संसय जावानो ते करे, मारग माथे जे घर करे । जाइवां हीडे निचे जिहां, जाइं करी घर मंडे तिहां ॥८॥ ए गति मारग
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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