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________________ ४७ जोम वाधस्ये, तेतलें पूरे लक्षण हुस्ये ॥३७॥ तो जे कोइ ए दंड आहेइ, ते नि ,मुं नरपति होइ । हरिकेशी सुत वयण बधारे, एक वलि ब्राह्मण सुणे तिवारे ॥३८॥ अंगुल, चार खणी द्विज कापे, तो मातंग न लेवा आपे । ब्राह्मण कहे दंड लेवा दें, ते नहु धे,एम पडया विवादें ॥३९॥ मातंग सुतनें तो द्विज पूछे, कहे किण कारण ए तुझ रुच्चे। वलतो भणे एहनें पाण, राजरिद्धि सिरि मुझ घरेजाण ॥४०॥ बीजा द्विज कहे जइ तुं राय, हुवे तो एहने करे पसाय। एक गाम देजे ते माने, झगडो टाली कीधा काने ॥४१॥ तो पुण कहे द्विज एह विणासी, लीजे दंड एक परि विमासी। ते मातंग तात सुणि वाणी. नासि गया कंचणपुरि जाणी॥४२॥ राय अपुत्र मरण तेह पामे, सवे मिली चिंते परिणामें । हय सिणगार्यो बाहिर जाइ, देइ प्रदक्षण) उभो ठाइ॥४३॥ ( वस्तुः - ) करिय आदर२ लोकजोवंत, राज चिन्ह देखी कूमर, जय ज्ञयारव तूरवाजे । दह दिसि गायें गीत घणा, जिसो मेह अंबर गाजे। निद्राभर उठी कुमर, लिये ते खिण विश्राम । हयडेसी जन परिवों, पहुतो रुप घर ठाम ॥४४॥ ( दूहाः- ) विप्र मिली आड़ा थया, नवि द्ये नयरि प्रवेस । ए मातंग अछे सही, मनधरि रोस विसेस ॥४५॥ दंडारयण कुमरें ग्रह्यो,) जलवा लागो जाम । विप्र सहु बीा घj, ले न सके कोइ नाम
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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