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________________ १४३ . (दूहाः- ) .., गाम नगर महि मंडळे, करता उग्र विहार । मुखमांहे मुख माणता,. जगजीबन हितकार ॥ ८॥ गाम एक वासो चसे, नगर पंच दिन सार । पुष्कर मेघ तणी परे, नागपुरें मुखकार ॥९॥ वन खंड आवी समोसरे, साधु सहित परि. वार । समोसरण परषद मिळे, कहिये तेह विचार ॥१०॥ (दाल २७ मी-पियु चाल्या परदेश सवे गुण ले चले. ए देशी.) . समोवसरण सुर आवी रचे तिण अवसरे, जोयण लगी मुर वायु धरणि कयवर हरे । लघु जल धारे सेघमाली वरसे सुदा, अगनि कुमार उखेवे धूप तिहां सदा ॥११॥ वाणव्यंतर सुर आवि पीठ मणिमय करे. भवणपति सुर आवि पीठपरे गढ धरे । साव रुपानो सार कोशिशां सोवना, जोईश पंच मकार सोवन गढ एकमना ॥१२॥ यण कांगरा करे वैमाणिक आविया, मणि कविसीसा सारे रयण गढ भाविया। इण परे त्रिण प्राकार मुरासुर मिली करे, चार बार सिंह पोल चिहं दिशि मन हरे ॥१३॥ गढ गढ तणो विचाळ तेरसय धनुषनो, पण सय पणह प्रमाण उंचपण भीतनो। अंगुल, बारे खीश धनुष तेत्रीशनो, विस्तर भींत वखाणि लहे जे इक मनो ॥१४॥ पोल एकेके तोरण त्रिण वखाणिये, विच मणि पीठ चिहुंदिशि आसण जाणिये। त्रिहुं आसन पडिरूव अशोक तळे भला, उत्रविहां त्रिणत्रिण चामर युग निरमळा ॥१५॥ धर्म चक्र दिशि चार, तेज अहनिशि करे, ध्वज इक जोयण सहस ऊंचपण
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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