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________________ १४२ विण जीवनें हो, भमतां नायो पार ॥१०॥ काळ असंख अनंत जाहो, थावर-काय मझार ॥ च०॥९७|| असंख सपि उव सूर्पिणी हो, धरणि दगागणी वाय ॥०॥ वनस्पति वसतां थकां हो, काळ अनंतो जाय ॥च०॥९८॥ विकलेंद्री तिरियोनमें हो, कर्म वशे पायाळ ॥ च० ॥ सर गति पामी शुभ उदय हो, तुम विण सहु विसराळ ॥ च० ॥ ९९ ॥ इम भव भगतां आवियो हो, मानबने भवसार ॥च०॥ बहु जन ऊभा ओळगे हो,आवागमन निवार ॥१०॥५००॥ चिंतामणि मुरतरु समो हो, कामधेनु कर लाध ॥च०॥ इम मन चाहे मानवी हो, सफळ जनम श्री साध ॥ च०॥१॥ गुण गावे जिनवरतणा हो, नाम ठाम विस्तार ॥०॥ चंपा जनम्या जगपत्रिहो, रूप वसपूजय मल्हार ॥१०॥२॥ जयानंद जग दीपतो हो, पहेले संघयण संठाण ॥०॥ लाख बहत्तर आउखो हो, सित्तर धनु तनु माण ॥०॥३॥ प्रत्तोपल सम वान के हो, महीप लंछन निराबाध ॥१०॥ छासठ गणधर गह गहे हो, सहस बहोत्तर साध ॥ च०॥४॥ इणपरे बहुविह (संघमें हो, वाणि सुधारस रेल ॥०॥ जिहां विचरे धन सामही हो, बधती भवियण वेल ॥१०॥५॥ संप्रति देखे जे जगें हो, ते धन मानव सार ॥०॥ आज अछे इण जायगा हो, नाम उवण आधार ॥च०।६। जिन प्रतिमा जिणवर समी हो, माने समकित धार ॥१०॥ करमसिंह मुनिवर मही हो, भवियण कहे विचार ॥०॥७॥
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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