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________________ १०७ मंके ठमके, पायें नेउर घूघर घमके ॥ २१॥ गज गतिशु केलि करती, साजण दुरजन परखंती। निरखंती वांके लोयण, जिम निरखे भूख्या भोयण ॥२२॥ हवे चिंते मन राजान, जाणे वीज खवी असमान । विद्याधरी किन्नरी राही, के इंद्र लोकथी आई ॥ २३ ॥ सवि नरपति देखी हरखे, रति रूप सही इम परखे। एहवी नही नारी काई, राव राणारे मन भाई ॥२४॥ बरशे हिव जेहने एह, धन जनम गिणेशा तेह । कर्मसिंहकहे करमसखाई, परणसे तेहने आई ॥ २५ ॥ दूहाःराजा मन मांहि चिंतवे, इहां कुण इणरी जोड । वर वरसे जे एहने, ते शिर वधियो मोड ॥२६॥ सहुको चाहे एहने, इणरो जिणशुं मन्न । इम चिंते सहु राजवी, ते जगमांहे धन्न ॥ २७ ॥ श्रीकंठ उमिया कारणे, कमळा) काज गोविंद्र । रतिने, कारणे कामगिणी, रोहिणी पति श्रीचंद्र ॥ २८ ॥ तिम इण रोहिणी कारणे, स्कूण छे चंद समान । निकमी राणीनी परे, बेठा कहे राजान ॥ २९ ॥' केई कहे ऊतावळा, इण वेळा कांइ आज। आरीसे शुं काम छे, कर कंकणरे काज ॥ ३० ॥ केई कहे निरखां निपुण, आपणशुं नहीं मंड । नारी पराइ निरखतां, डोळां ही को दंड ॥३१।। इण परे मन मोजां करे, जाणे समुद्र लहरि। परणीजण पुन्ये हुसी, जिणशुं साहिब महरि ॥ ३२ ॥ चतुर चेडी आगे कहे, कनक छड़ी जस हाथ । रूप रिद्धि
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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