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________________ जाणि करिये सदा, पुण्य चित्त धरि माय ॥८॥ ( चोपाइ:-) ___एम पंचमि२ दिनराय, कनकमाल पासे नगि जाइ । लोक मिली ये नगाइ नाम, एक दिवस नृप वन गयो ताम ॥८२।। विनयसहित राजा पूछियो, विंतर ते निजठामें गयो । कन्कमालने तूप तिहां रहे, एक दिवसे नरपति पते कहे ॥८३॥ नाथ एकलां इहां न रहाइ, तुं तो नयरि वली वलि जाइ, तत्र तिहां राय वसाव्यो गाम, बहुघर जिणहर करि अभिराम ॥८४॥ रइवाडी राजा नींकले, सोहे अधिको फूले फले । दीठो इसो राय सहकार, नरपति ल्ये मंजर एकबार ॥८५।। पाछलथी चाल्यो खंधार, पान फूल फल ल्ये तिणिवार । टुंठ सरीसो कीधो जिसे, नृप ते वलतो आवे तिसे ॥८६॥ पूछे तेय किहां सहकार,ते देखा. मंत्रि तिवार । एहनें इसी अवस्था काइ,कहे मंत्रि निर्धन एम थांइ ॥८७|| राजा चित्त विमासे घj, अथिरपणुं निज रिद्धितणुं । तां सोहे जां हुवे धन रिदि, तां जगि मान सयल तां सिद्धि ।।८८॥ धनविहूण सो नवि लहें, जिसुं ठंठ सहकारह रहे। लातीसमरणे बूझे यि, मुनिवर मारग आदरि भाय ||८९॥ वेस दिये ततखिण देवता, इहां न कांइ पाडे खता। तासु प्रसंसाकरि मनभाइ, बलि(ब्रह्मो तसु लागे पाइ ॥९०॥ काइ पापा ॥९०" ( गाम, समजविसमेत जो चूयरुख्खं तु मणाभिरामं, समंजरीपल्लवपुप्फचित्तं । रिद्धिं अरिद्धिं समुपेहिआणं, गंधारण्या विसमेख्ख धम्म
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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