SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसरी ढाल ६१ - सम्यग्दृष्टि को अपनी समाज के साथ, अपने धर्मके साथ और चतुर्विध संघके साथ सदा परम वात्सल्य रखना चाहिये ! इन पर किसीभी प्रकारकी आपत्ति आदि आने पर तन, मन, धन से उसे दूर करनेके लिए सदा उद्यत रहना चाहिए और अपने जीते जी अपने धर्म, समाज, और संघका किसी प्रकारका अपमान तिरस्कार या विनाश न होने देना चाहिए । ८ प्रभावना - अंग-संसारमें फैले हुए अज्ञानके प्रसारको सद्-ज्ञानके प्रचार द्वारा दूर कर सदाचारका आचरण-मंत्र और विद्या आदि के प्रभाव द्वारा जिस प्रकार बने उस प्रकारसे जैन शासनका माहात्म्य संसारमें प्रकट करना प्रभावना अंग है * । आचार्यांने प्रभावना के दो भेद किये हैं- आत्म- प्रभावना और बाह्य प्रभावना । रत्नत्रयको धारण कर उसके तेजसे आत्माको प्रभावशील बनाना आत्म प्रभावना है * और विद्याबल से, मंत्र अनवरतमहिंसार्या शिवसुखलक्ष्मीनिबंधने धर्मे । सर्वेष्वपि च सधर्मिषु परमं वात्सल्य मालम्ब्य म् ।। २६५ ।। पुरुषार्थसिद्ध युपाय | * ज्ञानतिमिरख्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्य प्रकाशः स्यात्प्रभावना ।। १८ ।। रत्नकरं श्रावकाचार * श्रात्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दान- तपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिमधर्मः ||३०|| पुरुषार्थ सिद्ध युपाय
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy