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________________ छहढाला उद्धार करने में समर्थ है। प्राणियोंकी राग-द्वषमयी बुद्धि ही उन्हें मृग-तृष्णाकी भांति कभी किसी वस्तुमें सुखका भान कराती है और कभी किसी वस्तुमें। पर यथार्थमें कोई भी वस्तु सुख या दुःखके देने में समर्थ नहीं है। इस प्रकारके राग-द्वेषरहित ज्ञानको वीतराग-ज्ञान कहते हैं । यह वीतराग-ज्ञान दो प्रकारका है-एक छद्मस्थ वीतराग-ज्ञान और दूसरा केवलि वीतराग-ज्ञान । यहां पर वीतराग-विज्ञानतासे अभिप्राय केवलि वीतराग-ज्ञानसे है। यह ज्ञान चार घातिया कर्मोंके नाश होने, और अरहंत अवस्था प्रकट होने पर उत्पन्न होता है। जीवके एक बार इसकी प्राप्ति हो जाने पर अनन्त काल तक यह स्थायी बना रहता है, इसीलिए इसको 'सार' कहा है। 'शिव' नाम 'आनन्द' या 'मोक्ष' का है। यह वीतराग-विज्ञानता आनन्दस्वरूप है, क्योंकि, केवल ज्ञानके उत्पन्न होते ही श्रात्मामें अनन्त सुख भी प्रगट हो जाता है और यह 'शिवकार' भी है, क्योंकि अरहंत अवस्थाके पश्चात् नियमसे 'शिव' (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। इस प्रकार तीनों लोकोंमें सर्वोत्कृष्ट एवं सारभूत केवल ज्ञानको ग्रन्थकारने मन, वचन और कायको शुद्ध करके नमस्कार किया है। ___ ग्रन्थकार ग्रन्थ-रचनाका उद्देश्य बतलाते हुए संसारके अनन्त प्राणियोंकी हार्दिक इच्छाको व्यक्त करते हैं :जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त, सुख चाहे दुखतें भयवन्त । तातें दुखहारी सुखकार, कहें सीख गुरु करुणाधार ॥२॥
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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