SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ छहढाला __ अन्तमें ग्रन्थकार अपने ग्रन्थ को समाप्त करते हुए भव्य. जनोंसे एक म र्मिक अपील करते हैं:यह राग-प्राग दहै मदा तातै समामृत सेइये, चिर भजे विषय कषाय, अबतो त्याग निज-पद वेइये । कहा रच्यो पर-पदमें, न तेरो पद यह, क्यों दुख सहै. अब 'दौल' हाउ सुखी स्वपद-रचि, दाव मति चूको यहै।१५। __अर्थ यह विषयतृष्णारूपी रागाग्नि अनादिकालसे निरन्तर तुझे और संसारी जीवोंको जला रही है, इसलिए समतारूपी अमृतका सेवन करना चाहिए । विषय-कषायोंको तूने चिरकालसे सेवन किया है, अबतो उनका त्याग करके निज पदको पानेका प्रयत्न करना चाहिए । तू पर-पदमें क्यों आसक्त हो रहा है ? यह पर-पद तेरा नहीं है, क्यों ब्यर्थमें इसके पीछे तू दुःख सह रहा है ? हे दौलतराम ! तू अपनी आत्माके पदमें तल्लीन होकर सुखी हो जा, इस प्राप्त हुए अवसर को मत चूक । इस प्रकार पण्डित दौलतरामने अपने आपको सम्बोधन करनेके बहाने संसारके भव्य जीवोंको सावधान किया है कि नर भव पानेका ऐसा सुयोग बार-बार प्राप्त नहीं होता। तू चाहे कि मैं विषय-तृष्णाको पूरा करलू, फिर आत्मकार्य में लगूंगा, सो यह त्रिकालमें भी पूरी होने वाली नहीं है, उसकी पूर्तिका तो एक मात्र उपाय सन्तोष रूप अमृतका पान करना है, सो तू
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy