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________________ छठवीं ढाल संसारमें अगणित कल्पकालोंके व्यतीत हो जाने पर भी सिद्ध जीवोंके कभी कोई विकार नहीं उत्पन्न होता । संसारमें त्रैलोक्य को चलायमान कर देने वाला भी यदि उत्पात हो जाय, तो भी मोक्षमें कभी कोई अव्यवस्था नहीं होती है । किन्तु सिद्ध जीव सदा काल किट्टिमा-कालिमासे रहित तपाये हुए सुषर्णके समान प्रकाशमान स्वरूपसे विद्यमान रहते है। और अनन्त आनन्दामृतका पान करते हुए संसारका नाटक देखा करते हैं। अब ग्रन्थकार रत्नत्रयका फल बतलाते हुए आत्म-हितमें प्रवृत्तिका उपदेश देते हैं:मुख्योपचार दुभेद यों बड़भागि रत्नत्रय धरै, अरु धरैगे ते शिव लहैं तिन सुयश जल जग-मल हरै । इंमि जानि, आलस हानि, साहस ठानि, यह सिख आदरौ, जबलौं न रोग जरा गहै, तबलों झटिति निज हित करौ॥१४॥ ___ अर्थ-जो भाग्यशाली जीव पूर्वोक्त प्रकारसे निश्चय और व्यवहार रूप दो प्रकारके रत्नत्रयको धारण करते हैं, तथा आगे धारण करेंगे, वे जीव नियमसे मोक्षको प्राप्त करेंगे। उनका सुयश रूपी जल जगतके पापरूपी मलको हरता है । ऐसा जान कर आलसको दूर कर और साहसको ठान कर इस शिक्षाको धारण करो कि जब तक शरीरको कोई रोग न घेरे, बुढ़ापा आकर न सतावे, तब तक शीघ्र ही अपना हित करलो।
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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