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________________ छहढाला १७४ जो भाव मोहतें न्यारे, दृग ज्ञान ब्रतादिक सारे । सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै ॥१४ ___ अर्थ-दर्शनमोहसे रहित जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, व्रत, तप श्रादि हैं, वे ही सच्चे धम हैं । उस धर्मको जब जीव धारण करता है, तभी वह अविचल और अन्याबाध सुखको प्राप्त करता है। विशेषार्थ-आचार्योंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र स्वरूप रत्नत्रयको धर्म कहा है । इस धर्मका वर्णन ग्रन्थकार क्रमशः स्वयं तीसरी ढालसे करते हुए चले आरहे हैं। सम्य चारित्रके एकदेश धारक श्रावकोंके धर्मका वर्णन चौथी ढालमें किया जा चुका है और सकल चारित्रके धारक मुनियोंके धर्म का वर्णन आगे छठी ढालमें किया जायगा । इस धर्मकी प्राप्ति निकट भब्यके अत्यन्त भाग्योदयसे होती है। यह धर्म उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयय, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य स्वरूप है, अहिंसा और अपरिग्रहता ही इसके प्रधान लक्षण हैं। इसी धर्मके प्राप्त न होनेके कारण जीव अनादिसे इस संसारमें अपने दुष्कर्मोंका फल भोगते हुए परिभ्रमण कर रहे हैं। जीव जैसा प्रेम पुत्र, स्त्रीमें, इन्द्रियोंके भोगोंमें और धन-सम्पत्तिमें करता है, वैसा स्नेह यदि वह जिनेन्द्रदेवप्रतिपादित धर्ममें करता, तो लीलामात्रमें सच्चे सुखको प्राप्त कर लेता। किन्तु यह महान दुःखकी बात है कि मनुष्य सांसा
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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