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________________ पांचवीं ढाल और चारित्रको धारण करो। मनुष्य गतिसे ही चारित्र, तप ध्यान आदिका होना संभव है और इसीसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है । जो ऐसे उत्तम नर-भव को पाकर इन्द्रिय-विषयोंमें रमण करते है, वे भस्म (राख) के लिए दिव्य रत्नको जलाते हैं, उन जैसा कोई मूर्ख और अज्ञानी नहीं है। __ऐसा जानकर हे आत्मन् ! कर्मोदयसे उत्पन्न हुई समस्त पर्यायोंको, समस्त संयोगों और सम्बन्धोंको 'पर' जानकर छोड़ और अपना आत्मा ही 'स्व-द्रव्य' है, वही उपादेय है ऐसा दृढ़ निश्चय कर । यही सद्-ज्ञान है और यही बोधि है । ऐसा वार-वार चिन्तवन करना सो बोधि-दुर्लभ भावना है, इस भावनाके निरन्तर भानेसे रत्नत्रय की प्राप्ति होती है और आत्मा सदा सावधान और जागरूप रहता है । अब धर्मभावना का वर्णन करते हैं : * सर्वार्थ सिद्धि अ०८ सू० ७ * मधुश्रगईए वितश्रो मशुअगईए महव्वयं सयलं । मशुअगईए झाणं मशुअगईए विणिवाएं ॥२६६॥ इय दुलहं मगुयशं लहिऊणं जे रमंति विसरसु । ते लहिय दिव्वरयणं भूइणिमित पजालंति ॥३०॥ स्वामिका • कम्मुदयजपज्जाया हेयं खा प्रोबसमियणागां खु। सगदवमुवादेयं णिच्छिति होदि सण्णाणं ।।४।। बारस-अणुवेक्खा
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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