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________________ १६... पांचवीं ढाल उपसोंको कर्मरूप शत्रुका ऋण समझकर शांतिसे सहन करते हैं, उनके भारी निर्जरा होती है। ................ जो पुरुष इस शरीरको ममताका उत्पन्न करने वाला,विनश्वर और अपवित्र समझकर उसमें रागभाव नहीं करता है किन्तु अपने दर्शन, ज्ञान और चारित्रको सुख-जनक, निर्मल और नित्य समझता है, उसके कर्मोंकी महान् निर्जरा होती है । जो अपने आपकी तो निन्दा करता है और गुणी जनोंकी प्रशंसा करता है, अपने मन और इन्द्रियोंको अपने वशमें रखता है और आत्मस्वरूपके चिन्तवनमें लगा रहता है उसके कर्मोंकी भारी निर्जरा होती है। जो शम भावमें तल्लीन होकर आत्मस्वरूपका निरन्तर ध्यान करते हैं, तथा इन्द्रियों और कषायों को जीतते हैं, उनके कर्मोंकी परम उत्कृष्ट निर्जरा होती है।, ऐसा जानकर सदा * रिणाभोयगुव मगाइ जो उवसगं. परीसह तिव्वं । पावफलं मे एदे मया वि यं संचिदं पव्वं ॥११०॥ ___ स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा • जो चिंतेइ सरीरं ममत्तजणायं विणस्सरं असुई । दंमणणाणचरित्त सुहजणयं णिम्मलं णिच्च॥१११।। * अप्पाणं जो जिंदइ गुणवंत्ताणं करेदि बहुमाण । मण-इंदियाण विजई स सरूवपरायणो होदि ॥११२॥ • जो समसुक्खणिलोणो वारं वारं सरेइ अप्पाणं । इंदियकसायविजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ।।११४।। स्वामिका
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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