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________________ १६६ छहढाला नहीं है, क्योंकि, इस निर्जराके द्वारा जीव जिन कर्मों की निजरा करता है उससे कई गुणित अधिक नवीन कर्मोका बन्ध कर लेता हैं, इसलिए इस निर्जराको व्यर्थ बतलाया गया है तपश्चरणके द्वारा स्थिति पूर्ण होनेके पूर्व ही जो कर्मोंकी निर्जरा की जाती है, उसे विपाक निर्जरा कहते हैं । यह निर्जरा व्रती, तपस्वी साधुओं के होती है और यही आत्माके लिए लाभदायक है, यही मोक्ष प्राप्त कराने वाली है । निर्जराका प्रधान कारण तप है । वह तप बारह प्रकारका बतलाया गया है । वैराग्य भावनासे युक्त निदान एवं अहंकार रहित ज्ञानी पुरुषोंके ही तपसे निर्जरा होती है । आत्मामें ज्यों ज्यों उपशम भाव और तपकी वृद्धि होती जाती हैत्यों त्यों निर्जराकी भी वृद्धि होती जाती है * । जो दुर्जनों के दुर्वचनों को, मारन, ताड़न और अनादरको अपना पूर्वोपार्जित कर्मका उदय जानकर शान्तचित्तसे सहन करते हैं उनके निर्जरा विपुल परिमाण में होती है । जो तीव्र परीषह और उम्र * बारसविहेण तवसा शियाणरहियस्स रिज्जरा होदि । रगभावणादो रिहंकारस्स गाणिस्स || १०२ ।। * उवसमभावतवाणं जह जह वड्ढी हवेइ साहूणं । तह तह णिज्जरवडूढी विसेसदो धम्मसुक्कादो || १०५ ।। • जो वि सहदि दुव्वयां साहम्मिय हीलां च ठवसग्गं । जिाऊसा कसायरिउ तस्स हवे शिज्जरा विउला ॥१०६॥
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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