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________________ पांचवीं ढाल १६३ अर्थ - जिन बुद्धिमान् पुरुषोंने पुण्य और पापरूप कार्योंको नहीं किया, किन्तु अपने आत्मा के अनुभव में चित्तको लगाया है, उन्हीं महापुरुषोंने आते हुए कर्मोंको रोका और संवरको प्राप्त कर अक्षयानन्त आत्मसुखको प्राप्त किया है । विशेषार्थ - शास्त्रकारोंने पापको लोहेकी बेड़ी और पुण्यको सोनेकी बेड़ी कहा है, क्योंकि, दोनोंके ही द्वारा बंधे हुए मनुष्य परतंत्रताके दुःखका अनुभव करते हैं । इसीलिए ज्ञानी पुरुष पुण्यास्रव और पापास्रवको छोड़कर आत्मानुभवका प्रयत्न करते हैं । कर्मोंके आगमनको रोकनेके लिए तीन गुप्ति, पांच समिति, दशधर्म बारह भावना, बाईस परीषहजय और पांच प्रकारके चारित्रको धारण करनेकी आवश्यकता है । मन, वचन, कायकी चंचलता को रोकना सो गुप्ति है, गमनागमन आदिमें प्रमादको दूर करना सो समिति है | दयामयी उत्तमक्षमादिको धारण करना सो धर्म है। संसार, देहादिका चिन्तवन करना सो अनुप्रेक्षा है भूख, प्यास दिकी बाधा को उपशम भावसे जीतना सो परीषह जय है * । * गुत्ती समिदी धम्मो सुवेक्खा तह परीसहजश्रोवि । उक्किटं चारित्त संवर हेदू विसेसे ||६६ || गुत्ती जोगणिरोह समिदीय पमायवज्जणं चेव । धम्म दयाहाो सुत्तच्चचिता हा ॥६७॥ सो विपरोसहविजय कुहाइपीडाण इरउद्वाणं । सवाणं च मुणीणं उवसमभावेण जं सहणं ॥ ६८ ॥ स्वामिका ०
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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