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________________ १६२ छहढाला दुर्मोच होता है, उसका छूटना बहुत कठिन होता है। इस दुर्माच कर्म पुद्गलों से निरन्तर भरा जाता हुआ यह जीव नीचे नीचे 'चला जाता है । जैसे कि जलसे भरी जाती हुई नाव नीचेको चली जाती है । हे आत्मन् ! इस कमस्रव का कारण तेरा अनादि कालीन कषाय- युक्त योग भाव है अतएव उसे दूर करनेका निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए * | और बन्धके कारण तीसरी ढाल में बता आये हैं, उससे बचने का प्रयत्न करना ही आस्रव भावनाका उद्देश्य है । इस भावनाके चिन्तवन करने से मिथ्यात्व कषाय, अविरति आदि में हेय बुद्धि और सम्यक्त्व, चारित्र आदि में उपादेय बुद्धि जागृत होती है । अब संवर भावनाका वर्णन करते हैं: जिन पुण्य पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना । तिनही विधिवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥ १० ॥ * अजस्रमास्रवन्त्यात्मन् दुर्मोचा: कर्म पुद्गलाः । तैः पूर्णस्त्वमघोधः स्या जलपूर्णो यथा प्लवः ||५५|| क्षेत्र चू० लं० ११ * तन्निदानं तवैवात्मन् योगभावौ सदातनौ । तौ विद्धि उपरिस्पन्दं परिणामं शुभाशुभम् ||५६ | श्रस्रवोऽयममुष्येति ज्ञात्वात्मन् कर्मकारणे । तत्तन्निमित्त वैधुर्यादपबाह्योर्ध्वगो भव ॥५७॥ क्षत्रचू० लं० ११
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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