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________________ १६० छड्ढाला आसक्तिसे सेवन कर रहा है। ? हे आत्मन् ! इस शरीरके भीतरी स्वरूपका विचार तो कर, इसके भीतर मल, मांस आदि घृणित और अपवित्र वस्तुओंके सिवा और क्या भरा है। जो देह इस चमड़ीसे ढके रहनेके कारण ऊपरसे बड़ा सुन्दर रमणीक दिखती है, दैववशात् यदि उसके भीतर की कोई वस्तु बाहर आजाय तो उसके अनुभव की बात तो दूर है, उसे कोई देखना भी नहीं चाहता* । इसलिए इस मांसके पिंडको अपवित्र और विनश्वर समझकर उसमें अनुराग मत कर, किन्तु इससे जो एक महान् लाभ यह हो सकता है, उसे प्राप्त करनेका प्रयत्न कर । वह महान लाभ यह है कि अक्षय, अव्याबाध सुखकी प्राप्तिके साधन-भूत सम्यक् चारित्र की साधना इसी शरीरसे ही संभव है, अतः तपश्चरणादि करके इस असार शरीरसे भी सम्यक चारित्ररूपी सारको खींच ले । फिर रस-हीन हुए इक्षुदंडके । एवं विहं पि देहं पिच्छंता वि य कुणांति अगुरायं । सेवंनि अायरेण य अलद्ध पुव्व ति मगरात। ।।८६।। . . स्वामि० * अस्पष्ट दृष्टमंगं हिं सामर्थ्यात् कमशिल्दिनः । रम्यमूहे किमन्यत्स्यान्मलमांसास्थिमज्जतः ॥५१॥ दैवादन्तः स्वरूपं चेदहिहस्य किं परैः । प्रास्तामनुभवेच्छेयमात्मन् को नाम पश्यति ।।५२॥ क्षत्र लं०११
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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