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________________ पांचवी ढाल . १५६ पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादित मैली । नव द्वार बहैं घिनकारी, अस देह करै किमि यारी ॥८॥ ___अर्थ यह देह रक्त, मांस, पीप, विष्टा, मूत्र आदिकी थैली है और हड्डी, चर्बी आदिसे बनी होनेके कारण अपवित्र है । इस देहके दो कानोंके छेद, दो आंख, दो नाकके छेद, एक मुँह, एक मूत्रद्वार और एक विष्टाद्वार, इन नौ द्वारोंसे सदा घिनावनी वस्तुएं बहा करती हैं, फिर हे आत्मन् ! ऐसे अपवित्र देहसे क्यों प्रीति करता है ? विशेषार्थ-हे आत्मन् ! यह शरीर समस्त निन्द्य और घृणित वस्तुओंका पिंड है, नाना प्रकारके कृमि-कुलसे भरा है, अत्यन्त दुर्गन्धित है, मल-मूत्रका भंडार है और अत्यन्त अपवित्र है । इस शरीरके सम्पर्कसे अत्यन्त पवित्र, सरस, सुगंधित, और मनोहर भी पदार्थ अति अपवित्र और घिनावने हो जाते हैं । इस प्रकारके देहको देखते हुए भी आश्चर्य है कि तू उसीमें अनुरक्त हो रहा है और अलब्धपूर्वके समान उसे अत्यन्त • सकल कुहियाण पिंडं किमिकुलकलियं अउव्व दुग्गंधं । मलमुत्ताणं गेहं देहं जाणेह असुमइमयं ॥३॥ स्वामिका० * सुट्ठ, पवित्तं दव्वं सरस सुगंधं मोहरं जं पि । देहरिणहितं जायदि धिणावणं सुठ्ठ दुग्गंधं ।।४।। स्वामि०
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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