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________________ P ) साधुओं के समान वेष धारण करने से ही साधु नहीं होता अथच भगवान् की आज्ञानुसार ही आचार विचार पालनेवाला साधु कहा जाता है। सिंह की चर्म पहिन कर गर्धव तभीतक सिंह माना जाता है जब तक कि वह अपने मधुर स्वर से गाना नहीं आरम्भ करता है । वेषधारी तभीतक साधु- प्रतीत होता है जबतक कि उसकी पञ्च महाव्रत पालना में शिथिलता नहीं दीख पड़ती है। जब कि आप एक छोटी सी भी नदी पार करने के लिये नाव को ठोक पीट कर उसकी दृढ़ता की परीक्षा करने के पश्चात् चढ़ने को उद्यत होते हैं तो क्या यह आवश्यकीय नहीं है कि संसार जैसे महासागर के पार करने के लिये पोत ( जहाज़ ) रूपी साधुओं की भले प्रकार परीक्षा कर लें। मान लिया कि साधुसाधुओं का वेष बनाय हुए है। और दूसरों के पराजय करने के लिये उसने कुयुतियां भी बहुत सी पढ़ रक्खी हैं तथापि यदि भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध चलता, है और "इस समय में पूरा साधुपना नहीं पल सक्ता" ऐसी शास्त्र विरुद्ध बातें कह २ कर लोगों को भ्रमाता रहता है तो वह केवल पत्थर की नाव के समान है न स्वयं तर सक्ता है न दूसरों को तार सक्ता है । 1 । साधुओं का आचार विचार भगवान् की वाणी से विदित होता है सूत्र ही भगवान् की वाणी हैं। सूत्रों का विषय गम्भीर होने से तथा गृहस्थ समाज का सूत्र पढ़ने का अनधिकार होने से सर्व साधा रण को भगवान् की वाणी विदित हो जावे और संसार सागर से पार होनेके लिये साधु असाधु की पक्षा हो जावे यह विचार कर ही जैन श्वेताम्बर तेरापन्थ नायक पूज्य श्री १००८ जयाचार्य महाराज ने इस " भ्रम विध्वंसन" ग्रन्थ को बनाया है इस ग्रन्थ में जो कुछ लिखा है। वह सब सूत्रों का प्रमाण देकर ही लिखा गया है. अतः यह ग्रन्थ कोई अन्य ग्रन्थ नहीं है किन्तु सर्बसूत्रों का ही सार है । भगवान् के वाक्यों के अर्थ का अनर्थ जहां कहीं जिस किसी स्वार्थ लोलुपी ने किया है उसके खंडन और सत्य अर्थ के मण्डन में जय महाराज ने जैसी कुशलता दिखलायी है वैसी सहस्र लेखनियों से भी वर्णन नहीं की जा सक्ती । यद्यपि आपके बनाये हुए अनेक ग्रन्थ हैं तथापि यह आपका ग्रन्थ मिथ्यात्व अन्धकार मिटाने के लिये साक्षात् सूर्यदेव के ही समान है । एकवार भी जो पुरुष इस ग्रन्थ का मनन कर लेगा उसको शीघ्र ही साधु असाधु की परीक्षा हो जायेगी और शुद्ध साधु की शरण में आकर इस असर संसार से अवश्य तर जायेगा ।
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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