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________________ भूमिका। ना ऐसा कोई भी बुद्धिमान् मनुष्य संसार में न होगा जिसने कि धर्म और अधर्म की विचारणा में अपना थोड़ा बहुत समय न लगाया हो। धर्म क्या है और अधर्म क्या है प्रायः इसी विवेचना में नाना सम्प्रदायों के नाना ही प्रन्थ बन चुके हैं और समय २ पर भिन्न २ मतावलम्बियों के इसी विषय पर लम्बे २ व्याख्यान और चौड़े २ वादविवाद भी होते रहते हैं। एक समाज जिसको धर्म कहता है दूसरा समाज उसीको अधर्म कह कर पुकारता है। इस धर्माऽधर्म की ही चर्चा में स्वार्थ देवका साम्राज्य होने के कारण निर्णय के स्थान में वितण्डावाद हो जाता है और शास्त्रार्थी शस्त्रार्थी बन जाते हैं। निर्मल हृदय वाले महात्माओं का अपमान होता है और पाषण्डियों का जय २ कार होने लगता है। "धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः" धर्म के बिना मनुष्य पशु समान है, इस न्याय के आधार पर कोई भी पुरुष पशुओं की सड्डया में सम्मिलित होना नहीं चाहता । किसी अज्ञानी से भी पशु कहना उसको चिढ़ाना है। परन्तु सुख भो भोगना और धर्म भी हो जाना ये दोनों बातें कैसे हो सक्ती हैं। धर्म २ कहना केवल जीभ हिलाना है और धर्म करना सांसारिक सुखों को जलाञ्जलि देना है। धर्म कोई पैतृक (पिता सम्बन्धी) व्यवसाय नहीं है यदि कोई अनभिज्ञ पुरुष शुद्ध महात्माओं के उपदेश को यह कह कर कि "यह उपदेश हमारे पितृ धर्म से विपरीत है" नहीं मानता है वह केवल अन्ध परम्परा का ही अनुयायी है "तातस्य कूपोऽय मिति वाणाः क्षारं जलं का पुरुषाः पिवन्ति" यह कूआ हमारे पिता का है यह कहकर खारी होनेपर भी मूर्ख पुरुष ही उसका जल पीते हैं। शुद्ध साधुओं का उपदेश संसार से तारने का है धर्म के विषय में अपना पराया समझना एक बड़ी भूल है। यदि एक बड़ी नदी से पार होने के लिये चि.सी की टूटी हुई नावकाम नहीं देती तो किसी दूसरे के जहाजसे पार हो जाना क्या बुद्धिमानी का काम नहीं है। धर्म कोष के अध्यक्ष शुद्ध साधु ही हैं धर्म की प्राप्त करने के लिये साधुओं की ही शरण लेना अत्यावशकीय है। किन्तु
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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