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________________ अनुकम्पाऽधिकारः । १२१ ari देवता रे मनही सूं पूछी निर्णय करे. अथवा जे कोई इम कहे वीतराग धर्मकथा स्यां काजे करे छे. इसी आशंका आणी चौथे पदे कहे है । स० पोताना काम काजे एतावता तीर्थकर नाम कर्म खपावा ने काजे. इहां आर्य क्षेत्र आर्य लोक मा प्रतिबोधवा भणी धर्म देश मा करे परं अनेरो कार्य श्रात्म प्रशंसादिक करे नथी. ॥ १७ ॥ परहित काजे जई ने तिम २ वि० धर्म देश वली आई मुनि कहे है. ग० ते भगवन्त किम्बहुना जिम २ भव्य जीव ने उपकार थाइ तो जानें पिया धर्म कहे. अ० अथवा उपकार न देखे तो तिहां इण कारण तेहनें राग द्वेष नी संभावना नथी । सम्यग्दृष्टि पणे चक्रवर्त्ती पूछि थके धर्म कहे. शीघ्र प्रज्ञावन्त एतले सर्बज्ञ तथा जे तेहनू कारण सांभली अ० अनार्य. दं० दर्शन थकी पिख. उं० भ्रष्ट शंक मानता थकां त० तिहां. ० न जाय जिण कारण ते जीव मादिके कर्म उपार्जी आपण पे अनन्त संसार करिये इस्यूं जाणो द्वेष भय को नी ॥ १८ ॥ अथवा तिहां०: अ ना वागरे जे उपकार व्यां नें पिण न कहे. अथवा रंक ने पूछिउ अनार्य देश न जाय स्वामी इति० इस कारण सं० वीतराग ने देखी अवहेतिहां न जाय. परं राग । तथा महणो २ कहो छी । तरे असंयम जीवितव्य वधे अथ अठे को-पोता ना कर्म खपावा तथा आर्य क्षेत्र ना मनुष्य नं तारिया भगवान् धर्म कहे, इम कह्यो पिण इम न कह्यो जे जीव बचावा नें अर्थ धर्म कहे. इण न्याय असंयती जीवां रो जीवणो बांछयां धर्म नहीं । तिवारे कोई 1 कहे असंयती जीवां रो जीवणी बांछगो नहीं। तो ये जीव हणवा रा सूंस करावो तें जो हमें नहीं, तिवारे असंयम जीवितव्य बधे छे तथा जीव हणता ने उपदेश देई हिंसा छोड़ावो छो । छै । तेहनो उत्तर - साधु जीव हणता ने उपदेश देवे ते तो तिणरो पाप टालवाने असंयती से संयती करवा ने. पिण असंयती नें जिंवावण ने उपदेश न देवे । जिम कोई कसाई पांचसौ २ पंचेन्द्रिय जीव नित्य हणे छै, ते कसाई ने कोई मारतो हुने तो तिण नें साधु उपदेश देवे । ते तिण ने तारिवा ने अर्थ, पिण कसाई में जीवतो राखण नें उपदेश न देवे । ए कसाई जीवतो रहे तो आछो. इम कसाई नों जीवणो वांछणो नहीं । केई पंचेन्द्रिय हणे. केई एकेन्द्रियादिक हणे छै । ते माटे असंयती जीव ते हिंसक छै । हिंसक नों जीवणो वांछ्यां धर्म किम हुवें । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो । इति १ बोल सम्पूर्ण । १६
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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