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________________ artisधिकारः । वर्तमान काल बिना तो भगवती श० ८ उ० ६ असंयती ने दियां एकान्त पाप कह्यो । तथा सूयगडाङ्ग श्रु० २ उ० ६ गा० ४५ ब्राह्मण जिमायां नरक कही है। तथा ठाणांग ठाणे १० वेश्यादिक ने देवे ते अधर्म दान कह्यो । तथा सूयगडाङ्ग ध्रु० १ अ० ६ गा० २३ साधु बिना अनेश ने देवो ते संसार भ्रमण ना हेतु कह्यो । इत्यादिक अनेक ठामे सावद्य दान रा फल कडुआ कह्या । ते माटे इहां मौन वर्त्तमान काल में इज कही । ते अर्थ पाठ थी मिलतो छै। मोइजो । डाहा हुबे तो विचारि इति १३ बोल सम्पूर्ण । एतले को न मानें तेहने वली सूत्र नी साक्षी थकी न्याय देखाड़े छै । दक्खिगाए पडिलंभो अत्थिवा नत्थिवा पुगो । नवियागरेज मेहावी संति मग्गंच वूहए ॥ ( सूयगडांग श्रु० २ ० ५ गा० ३३ । द० दान तेहनों पं० गृहस्थे देवा. o प्रति नास्ति गुण दूषया कांई न कहे. कहितां वृत्तिच्छेद थाइ इण कारण श्र० बोले. स० ज्ञान दर्शन चारित्र रूप. बु० बधारे ते थाइ तिम न बोले । ०३ लेणहार ने लेवो इसो व्यापार वर्तमान देखी. गुण कहितां असंयमनी अनुमोदना लागे. दूषया श्रस्ति नास्ति न कहे. मे० मेधावी हि साधु किम एतावता जिण वचन वोल्यां असयम सावध - अथ इहां पिण इम कह्यो – दान देवे लेवे इसो वर्तमान देखी गुण दूषण न कहे । ए तो प्रत्यक्ष पाठ को जे देबे लेवे ते वेलां पाप पुण्य नहीं कहिणो । "दक्खिणाए" कहितां दान नो "पड़िलंभ" कहितां भगला नें देवो ते प्राप्ति एतले दान देवे ते दान नी आगला ने प्राप्ति हुवे ते बेलाँ पुण्य पाप कहिणो बर्ज्यो । पिण ओर बेल बज्र्ज्या नहीं । अनें किण :ही बेलां में प प रा फल न बतावणा तो अधर्म दान में पाप क्यूं कहे । असंयती ने दीघां एकान्त पाप भगवन्ते क्यूं कह्मो । आनन्द श्रावक अभिग्रह धाला ने हूं अन्य तीर्थी ने देवूं नहीं । अभिग्रह क्यूं १०
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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