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________________ श्राद्धविधि/८२ सरोवर में हाथी के बच्चे की भाँति क्रीड़ा करने लगा। तभी उसे दिव्य कमल के समान अत्यन्त सुगन्धित सहस्रदल कमल प्राप्त हुना। धन्य उस कमल को लेकर सरोवर में से बाहर निकलकर हर्ष से आगे बढ़ने लगा। मार्ग में फूल चूटकर ले जाती हुई माली की चार कन्याएँ उसे मिलीं। पूर्व के प्रति परिचय के कारण उस सहस्रदल कमल की विशेषताओं को देखकर उन कन्याओं ने धन्य को कहा, "हे भद्र ! भद्रशाल वन के वृक्ष के फूल की भाँति यह कमल अत्यन्त ही दुर्लभ है। यह उत्तम वस्तु उत्तम पुरुष के लिए है, अतः इसका जहाँ-तहाँ उपयोग मत करना।" धन्य ने कहा, "मुकुट के समान इस कमल का उत्तम पुरुष में ही उपयोग करूंगा।" उसके बाद धन्य ने सोचा, “सभी पुरुषों में उत्तम ऐसा सुमित्र ही मेरे लिए पूज्य है।" सामान्यतया जिसकी आजीविका जिससे चलती हो, उसके लिए वही पूज्य होता है । - इस प्रकार विचार कर वह मुग्ध धन्य सुमित्र के पास गया और नमस्कार करके विनय पूर्वक सब बात कहकर, जिस प्रकार देवता के सामने कमल धरा जाता है, उस प्रकार उसने सुमित्र के सामने वह कमल रख दिया । उसी समय सुमित्र ने कहा, "मेरे सेठ वसुमित्र सबसे उत्तम होने से इस कमल के लिए वे ही योग्य हैं। उनका मुझ पर इतना अधिक उपकार है कि उनका नित्य दासत्व करूं तो भी उनके ऋण से मैं मुक्त नहीं हो सकता हूँ।" वह धन्य उस कमल को लेकर वसुमित्र के पास गया और सब बातें कहकर उसने वसुमित्र के आगे उस कमल की भेंट रखी। उसी समय वसुमित्र ने कहा, "इस कमल के सम्मान के लिए तो मंत्री योग्य है, क्योंकि मेरे सर्व कार्यों की सिद्धि उसी से होती है।" वसुमित्र की इस बात को सुनकर धन्य वह कमल लेकर मंत्री के पास गया और उस मंत्री के आगे वह कमल-भेंट रखने लगा। ____ उसी समय मंत्री ने कहा, “इस कमल के सम्मान के लिए तो प्रजा का पालन करने वाला राजा योग्य है, क्योंकि स्रष्टा (ब्रह्मा) की तरह उसकी दृष्टि का प्रभाव भी अद्भुत है। उसकी कृपादृष्टि से कंगाल भी समृद्ध हो जाता है और उसकी क्रूरदृष्टि से शक्तिमान् भी कमजोर हो जाता है।" मंत्री की यह बात सुनकर धन्य उस कमल को लेकर राजा के पास गया। राजा भी जैन सद्गुरु की सेवा में तत्पर होने से बोला-"जिनके चरण-कमलों में मेरे जैसे राजा भी भ्रमर का आचरण करते हैं, मतः वे ही उत्तम हैं, गुरु हैं। उनका योग स्वाति नक्षत्र में वर्षा के जल की भांति अत्यन्त ही अल्प होता है।" कृप राजा इस प्रकार बात कर ही रहा था कि उसी समय सबको आश्चर्य में डालने वाले चारणऋषि देव की भांति प्राकाश में से पाये।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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