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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / ७९ कपूर एवं कमल जैसे हाथों वाला पृथ्वी के लोगों को आनन्द देने वाला राजधर नाम का राजा राज्य करता था । उसके देवांगनाओं के रूप से भी अधिक रूप वाली प्रीतिमती प्रादि ५०० रानियाँ थीं । प्रीतिमती को छोड़कर अन्य सभी रानियों के पुत्र थे अर्थात् जगत् को मानन्द देने वाले पुत्र से एक मात्र प्रीतिमती की ही गोद खाली थी । ध्यापने के कारण प्रीतिमती को अत्यन्त ही खेद था । सामान्यतया भी पंक्तिभेद सहन करना अत्यन्त कठिन है तो फिर बड़े पुरुषों के लिए तो वह कितना कठिन होगा ? अथवा जो वस्तु भाग्य के प्राधीन है, उसके बारे में मुख्य-मुख्य का विचार करने से क्या फायदा? फिर भी इस प्रकार प्रार्त्तध्यान करने वाले मूढ़ पुरुषों को धिक्कार है । पुत्र प्राप्ति के लिए प्रीतिमती ने देवतानों की अनेकविध मनौतियाँ की थीं, परन्तु वे भी जब निष्फल गईं तो प्रीतिमती के दुःख का पार न रहा । उपाय निष्फल जाने पर उपेय विषयक आशा भी नहीं रहती है । + एक बार हंस का एक बच्चा घर में खेल रहा था । प्रीतिमती ने उसे हाथ में उठा लिया फिर भी वह बच्चा निर्भय होकर मनुष्य की वाणी में उसे कहने लगा, "तुम निपुण होने पर भी स्वच्छन्द रूप से क्रीड़ा करने वाले.... मुझको क्यों पकड़ती हो ? स्वच्छन्द रहने वाले प्राणियों के लिए तो बन्धन मरण के समान है । तुम स्वयं वंध्यत्व का अनुभव कर रही हो, फिर यह अशुभ कर्म क्यों बाँधती हो ? शुभ कर्म से ही धर्म होता है और धर्म से ही इच्छित फल की सिद्धि होती है ।" हंस के बच्चे के मुख से इस बात को सुनकर विस्मित एवं भयभीत बनी प्रीतिमती बोली, " हे चतुर शिरोमणि ! मैं तुझे जल्दी मुक्त कर दूंगी परन्तु एक बात पूछती हूँ कि अनेकविध देवतानों की पूजा, दान तथा सत्कर्म करने पर भी शापित नारी की तरह मुझे पुत्र प्राप्ति क्यों नहीं हो रही है ? पुत्र के बिना मैं दुःखी हूँ। इस बात को तू कैसे जानता है ? और मनुष्य की भाषा में कैसे बोलता है ।" मैं तो तुझे हितकारी बात कहता उसने कहा, “मेरी बात पूछने से तुझे क्या मतलब है ? -धन, पुत्र तथा सुख आदि समस्त सम्पत्तियाँ पूर्वकृत भाग्य के आधीन हैं ।" "इस लोक में किया गया शुभ कर्म बीच में आने वाले विघ्नों को शान्त करता है । " जैसे-तैसे देवताओं की पूजा निष्फल है, उससे मिथ्यात्व का बन्ध होता है । एक जिनप्ररणीत धर्म ही इसलोक और परलोक में वांछित वस्तु को देने वाला है । जिनधर्मं से यदि विघ्नों की शान्ति न हो तो फिर किससे होगी ? जिस अंधकार को सूर्य दूर न कर सके, उस अंधकार को क्या अन्य ग्रह दूर कर सकेंगे ? अतः तू कुपथ्य समान मिथ्यात्व को छोड़ दे और वास्तविक अर्हद्धर्म की उपासना कर, जिससे इसलोक और परलोक में समस्त इष्ट फल की सिद्धि होगी ।" इस प्रकार बोलकर वह हंस शीघ्र ही पारे की तरह उछलकर भाकाश में उड़ गया ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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