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________________ पाविधि/७८ इन दोनों प्रीति, भक्ति अनुष्ठान को उदाहरण से बताते हैं-पत्नी और माता का पालनपोषण करना है लेकिन पत्नी का पालन तो प्रीति से किया जाता है और माता का भक्ति से। जो जिनेश्वर के गुणों को जानता है और सूत्रोक्त विधि के अनुसार वन्दन आदि क्रिया करता है, ऐसे चारित्रवान् प्रात्मा को निश्चय से यह वचनानुष्ठान होता है, परन्तु पार्श्वस्थादि को नहीं होता है। पूर्व के अभ्यास से श्रुत का पालम्बन लिये बिना जो निराशंस भाव से अनुष्ठान करता है उसे प्रसंग अनुष्ठान समझना चाहिए। जिनकल्पी को यह अनुष्ठान होता है। कुम्भकार का चक्र प्रथम दण्ड से घूमता है और उसके बाद पूर्वप्रयोग से चक्र घूमता रहता है, उसी प्रकार वचन अनुष्ठान आगम के अनुसार प्रवृत्त होता है और उसके बाद अभ्यास के कारण पागम की अपेक्षा बिना प्रसंग अनुष्ठान होता है। थोड़े भाव होने के कारण प्रीति अनुष्ठान प्रायः बाल आदि को होता है। उसके बाद निश्चयतः उत्तरोत्तर अनुष्ठानों की प्राप्ति होती है। ये चारों अनुष्ठान पहले रुपये के समान समझने चाहिए, क्योंकि पूर्वकालीन महापुरुषों ने उन सबको परमपद-मोक्ष का कारण कहा है । दूसरे रुपये के समान अनुष्ठान को एकान्त से दुष्ट नहीं कहा है, क्योंकि वह सम्यग् अनुष्ठान का कारण बनता है क्योंकि पूर्वाचार्य कहते हैं-जिस प्रकार अन्दर से निर्मल रत्न पर बाहर से मैल लगा हो तो भी वह मैल सुखपूर्वक दूर हो सकता है, उसी प्रकारं अशठ की अशुद्ध क्रिया शुद्ध क्रिया का कारण होती है। माया-मृषा आदि दोषों से युक्त धर्मक्रिया तीसरे प्रकार के रुपये के समान है। जैसे ग्राहक को खोटा रुपया देने वाले व्यापारी को अनर्थ का सामना करना पड़ता है, उसी तरह इस अनुष्ठान को करने वाले का अनर्थ होता है। यह तृतीय प्रकार का अनुष्ठान प्रायः करके अज्ञानता, अश्रद्धा और अत्यधिक पापकर्म वाले भवाभिनन्दी जीवों को होता है। चौथे प्रकार का अनुष्ठान, बहुमान एवं विधि रहित होता है। इसमें आराधना या विराधना नहीं होती है। फिर भी प्रशस्त निमित्त के सतत सान्निध्य से कभी-कभी शुभ भाव उत्पन्न हो सकते हैं। ___जैसे, किसी प्रकार का सुकृत किये बिना मरकर मछली के भव में गये हुए श्रावक के पुत्र को जिनप्रतिमा के आकार की मछली देखकर जातिस्मरण और समकित हुआ था। देवपूजा आदि में हार्दिक बहुमान एवं सम्यग् विधि के पालन से सम्पूर्ण फल मिलता है, अतः उसमें प्रयत्न करना चाहिए। इस पर धर्मदत्त राजा का उदाहरण दिया जाता है। * धर्मदत्त राजा की कहानी * चांदी के जिनमन्दिरों से सुशोभित राजपुर नगर में प्रजा के लिए चंद्र की तरह शीतकर
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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