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________________ श्राद्धविधि / ७६ अन्यत्र भी कहा है- "आरम्भ समारम्भ में डूबे हुए, षट् जीवनिकाय के वध की प्रतिज्ञा धारण नहीं करने वाले संसार - अटवी में रहे हुए गृहस्थों के लिए द्रव्यस्तव ही श्रेष्ठ श्रालम्बन है ।" "वायु जैसा चपल, मोक्षपद का घात करने वाला, बहुत नायक वाला और निस्सार ऐसे अल्प धन से भी जिनेश्वर भगवान की पूजा करके स्थिर, मोक्ष को देने वाला, स्वाधीन, बहुत और परम सारभूत विशुद्ध पुण्य को ग्रहण करता है, वही वणिक् व्यापार करने में अत्यन्त चतुर है ।" 'मैं जिनमन्दिर जाऊंगा' - इस प्रकार मन में विचार करने वाले को एक उपवास का लाभ मिलता है । मन्दिर जाने के लिए उठने वाले को छट्ठ (दो उपवास) का लाभ मिलता है । मन्दिर जाने के लिए तैयार होने से उसे अट्टम का लाभ मिलता है । मन्दिर जाने के लिए मार्ग में चलने से इस श्रद्धालु व्यक्ति को चार उपवास और जिनमन्दिर के द्वार पर पहुँचने पर उसे पाँच उपवास, मन्दिर में प्रवेश करने पर उसे पन्द्रह उपवास और प्रभु के दर्शन से उसे एक मास के उपवास का फल प्राप्त होता है । पद्मचरित्र में तो इस प्रकार कहा है- "जिनमन्दिर में जाने का विचार करने से उपवास, जाने के लिए उठने पर दो उपवास, जाने का प्रारम्भ करने से तीन उपवास, चलने से चार उपवास, थोड़ा जाने पर पाँच उपवास, रास्ते के बीच पन्द्रह उपवास, जिनमन्दिर दिखाई देने पर एक मास के उपवास का फल, ,जिनेश्वर भगवन्त के मन्दिर तक पहुँचने पर छह महीने के उपवास का फल, मन्दिर के द्वार पर आने पर एक वर्ष के उपवास का फल, प्रदक्षिणा देने पर सौ वर्ष के उपवास का फल, जिनेश्वर की पूजा करने पर एक हजार वर्ष के उपवास का फल और जिनेश्वर की स्तुति करने पर अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है ।" प्रभु की प्रमार्जना करने पर सौ गुना, विलेपन करने पर एक हजार गुना, माला चढ़ाने से लाख गुना फल और प्रभु के गीत-गान करने पर अनन्त गुना पुण्य मिलता है । जिनेश्वर प्रभु की पूजा प्रतिदिन त्रिकाल करनी चाहिए । कहा भी है- प्रातः काल में जिनेश्वर की पूजा करने से रात्रि के पाप नष्ट होते हैं । मध्याह्न की पूजा से जीवन पर्यन्त के और संध्या पूजा से सात जन्म के पाप नष्ट होते हैं । जल, आहार, औषध, निद्रा, विद्या, मलमूत्र त्याग तथा कृषि आदि की क्रिया अपने-अपने उचित समय पर करने पर लाभदायी होती है, उसी प्रकार परमात्मा की पूजा भी उचित समय पर करने से सुन्दर फल वाली होती है । जिनेश्वर भगवन्त की त्रिसंध्या पूजा करने वाला सम्यक्त्व को सुशोभित करता है और श्रेणिक महाराजा की 'तरह तीर्थंकर नामकर्म का बंध करता है । ★ "जो पुरुष दोषमुक्त जिनेश्वर भगवन्त की त्रिकाल पूजा करता है, वह तीसरे भव अथवा सातवें आठवें भव में सिद्धिपद प्राप्त करता है ।" ." इन्द्रों के द्वारा सर्व आदर से पूजा करने पर भी तीर्थंकरों की संपूर्ण पूजा नहीं होती है।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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