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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/७५ स्वीकार यानी सुकृत का आचरण करना और परिहार यानी परमात्मा द्वारा निषिद्ध कार्यों को न करना। . स्वीकार पक्ष की अपेक्षा परिहार पक्ष ही बेहतर है। क्योंकि तीर्थकरों से निषिद्ध आचरण का सेवन करने वाले को सुकृत का अधिक प्राचरण भी ज्यादा लाभ नहीं देता। जैसे-रोगी के रोग का प्रतिकार स्वीकार और परिहार दो प्रकार से होता है। (१) औषधि का स्वीकार और (२) अपथ्य का त्याग । औषध के सेवन के साथ यदि अपथ्य का भी सेवन किया जाय तो आरोग्य की प्राप्ति नहीं होती है। कहा भी है ___ "औषध का सेवन न कर केवल पथ्य का भी अच्छी तरह से पालन कर दे तो रोगी रोगमुक्त हो जाता है, परन्तु पथ्य का पालन न करे तो सैकड़ों औषधियों से भी रोगी रोगमुक्त नहीं बनता है।" इसी प्रकार परमात्मा द्वारा निषिद्ध कार्यों का प्राचरण करने वाले को परमात्म-भक्ति भी विशेष फलदायी नहीं होती। औषध का सेवन और अपथ्य का त्याग करने से ही रोगी शीघ्र रोगमुक्त बनता है, उसी प्रकार स्वीकार और परिहार रूप उभय आज्ञाओं के पालन से व्यक्ति शीघ्र ही मुक्त बनता है। श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी म. ने भी कहा है-'हे वीतराग परमात्मा ! आपकी पूजा की अपेक्षा भी आपकी आज्ञा का पालन ही विशेष लाभकारी है। आपकी आज्ञा की आराधना मोक्ष के लिए होती है और आपकी आज्ञा की विराधना संसार (वृद्धि) के लिए होती है।' द्रव्य और भाव स्तव का फल इस प्रकार कहा गया है 'उत्कृष्ट द्रव्यस्तव की आराधना करने से अधिकतम अच्युत (१२ वें) देवलोक की प्राप्ति होती है और उत्कृष्ट से भावस्तव करने से अन्तर्मुहूर्त में मोक्षपद की प्राप्ति होती है। 5 शंका-समाधान ॥ प्रश्न-द्रव्यस्तव में षट्काय की विराधना होती है, फिर उससे लाभ कैसे ? उत्तर-कूप के दृष्टान्त से श्रावक के लिए द्रव्यस्तव समुचित है। इस द्रव्यस्तव के करनेसे सुनने से-कर्ता, द्रष्टा और श्रोता (अनुमोदक) को अगणित पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है। जैसे-किसी नवीन गाँव में स्नान-पान आदि के लिए लोगों के द्वारा कुप्रा खोदा जाता है। कुए को खोदते समय तृषा, श्रम, कीचड़ की मलिनता भी होती है, परन्तु कुए में से पानी निकलने पर स्वयं तथा दूसरों की भी तृषादि दूर हो जाती है, पूर्व का मैल भी दूर हो जाता है... जल से ठण्डक भी मिलती है. इस प्रकार हमेशा समस्त शरीर को सुख प्राप्त होता है। मावश्यकनियुक्ति में कहा है "परमात्मा के बताये हुए सम्पूर्ण (सर्वविरति) मार्ग का स्वीकार नहीं कर सकने वाले देशविरति श्रावक के लिए कूप के दृष्टान्त से यह द्रव्यस्तव उचित है और संसार (भ्रमण) को नष्ट करने वाला है।" देखने
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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