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________________ प्राविधि/५६ मोक्षगत जिनेश्वर की दाढ़ाएँ तीनों लोकों में स्वर्ग की पेटियों में एक के ऊपर एक इसी प्रकार रखी जाती हैं। उसमें न्हवण के जलादि का परस्पर स्पर्श होता ही है। पूर्वधरों के समय में बनी हुई तीन प्रकार की प्रतिमाएँ(१) व्यक्त्याख्या-जिसमें एक ही अरिहन्त की प्रतिमा हो । (२) क्षेत्राख्या-एक ही पट्ट में चौबीस जिनेश्वरों की प्रतिमाएँ हों। (३) महाख्या-एक ही पट्ट में १७० जिनेश्वर की प्रतिमाएँ आज भी कई नगरों में देखी जाती हैं तथा इन तीन प्रकार की प्रतिमाओं का वर्णन शास्त्र में भी मिलता है। कई प्रतिमाओं में मालाधारी देवताओं की प्राकृति होती है। उनके स्नात्र जल का स्पर्श जिनबिम्ब को भी होता है। पुस्तक में पन्ने एक-दूसरे के ऊपर ही होते हैं। अतः चौबीसी में एक दूसरे जिनेश्वर के स्नात्र जल का स्पर्श एक-दूसरे जिनेश्वर को होने पर भी उन्हें बनाने में कोई दोष नहीं है। क्योंकि इस प्रकार की परम्परा है और युक्ति से भी सिद्ध है तथा ग्रन्थों में भी देखी जाती है। बृहद् भाष्य में भी कहा है ___ "कोई भक्तियुक्त श्रावक परमात्मा की ऋद्धि को बताने के लिए अष्ट महाप्रातिहार्य युक्त तथा देवताओं के आगमन युक्त प्रतिमा कराता है। कोई भक्त दर्शन, ज्ञान और चारित्र की आराधना के लिए एक पट्ट में तीन प्रतिमाएँ और कोई पंचपरमेष्ठि नवकार के उद्यापन के लिए एक पट्ट में पांच जिनेश्वर की प्रतिमा भराता है। कोई भक्त चौबीस जिनेश्वरों के कल्याणकों के उद्यापन के लिए चौबीस जिनेश्वरों की एवं कोई समृद्ध श्रावक मनुष्यक्षेत्र में विहरमान उत्कृष्ट से १७० तीर्थंकरों की भी प्रतिमा भक्ति से करवाते हैं।" ही है। . इससे सिद्ध होता है कि एक पट्ट में त्रितीर्थी, पंचतीर्थी तथा चौबीसी आदि करना न्याययुक्त [ यहाँ अंगपूजा का अधिकार समाप्त होता है। ] * अग्रपूजा * सोने-चांदी के अक्षत से अथवा उज्ज्वल शालि आदि के अखण्ड चावल अथवा सरसों से अष्टमंगल का आलेखन करना चाहिए। श्रेणिक महाराजा प्रतिदिन सोने के १०८ जौ से (प्रभु की विहारदिशा के सामने) स्वस्तिक आदि करते थे। अथवा रत्नत्रयी की आराधना के लिए पट्ट पर बढ़िया अक्षत से तीन ढेरियाँ करनी चाहिए। इसके साथ ही कूर आदि अशन, शक्कर तथा गुड़ादि का पानी पक्वान्न, फल आदि खादिम तथा तांबूल आदि स्वादिम रखना चाहिए। गोशीर्ष चन्दन के रस से पंचांगुलि के मण्डल आदि का आलेखन, पुष्प समूह, आरती आदि सभी का समावेश अग्रपूजा में होता है। भाष्य में कहा है “गाना, नाचना, वाजिंत्र-वादन, लवण जल की आरती तथा दीपक आदि का समावेश अग्रपूजा में होता है।" नैवेद्य पूजा प्रतिदिन शक्य है और महाफलदायी है। धान्य और विशेष
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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