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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/५५ जिस प्रकार मिट्टी से निर्मित प्रतिमा की पूजा पुष्प आदि से ही करना उचित है और स्वर्णमय आदि प्रतिमा की पूजा जल-चन्दन आदि से भी की जाती है। किसी परमात्मा के कल्याणक आदि का दिन हो तो उस परमात्मा की विशेष पूजा-भक्ति करने पर अन्य परमात्माओं का अपमान करने की भावना धार्मिक पुरुषों को नहीं होती है। इस तरह यथायोग्य उचित प्रवृत्ति करने से अन्य बिम्बों का अपमान नहीं होता है। वैसे ही मूल बिम्ब की विशेष पूजा करने में अन्य बिम्बों का अपमान नहीं है। जिनभवन तथा जिनबिम्ब की पूजा परमात्मा के लिए नहीं करते हैं किन्तु अपने शुभ भावों की वृद्धि के लिए और अन्य बुध पुरुषों के बोध (प्रेरणा) के लिए करते हैं। कई आत्माएँ भव्य जिनमन्दिरों को देखकर, कई आत्माएँ परमात्मा के प्रशान्त बिम्बों को देखकर, कई आत्माएँ परमात्मा की भव्य अंग-रचना को देखकर और कई आत्माएँ उपदेश सुनकर प्रतिबोध पाती हैं। इस कारण चैत्य तथा गृहचैत्य एवं उसके बिम्ब, उसमें भी मूलनायक की प्रतिमा तो अपनी शक्ति एवं देश-काल आदि की अपेक्षा विशिष्ट बनानी चाहिए। गृहचैत्य में तो ताम्र आदि धातु की प्रतिमाएँ वर्तमान में भी करा सकते हैं। उतनी शक्ति न हो तो हाथी दाँत आदि अथवा दन्तभ्रमरी आदि की रचना, पित्तल और हिंगुल की शोभा और श्रेष्ठ कोरणी वाली चन्दनादि बढ़िया काष्ठ की प्रतिमा करानी चाहिए। जिनमन्दिर तथा गृहचैत्य की प्रतिदिन प्रमार्जना करनी चाहिए। जहाँ आवश्यकता हो वहाँ तेल (वार्निस) लगाना चाहिए। समय-समय पर चूने आदि की सफेदी करानी चाहिए। जिनेश्वर भगवन्त के चरित्र आदि प्रसंगों का आलेखन कराना चाहिए। पूजा के समग्र उपकरणों को स्वच्छ रखना चाहिए। पर्दे, चंदरवे आदि भी इस प्रकार रखने चाहिए कि जिससे शोभा में अभिवृद्धि हो। गृहचैत्य के ऊपर धोती आदि भी नहीं रखनी चाहिए। जिनमन्दिर की तरह वहाँ भी चौरासी आशातनाओं का त्याग करना चाहिए। पित्तल तथा पाषाण आदि की प्रतिमाओं का अभिषेक करने के बाद उन्हें एक अंग लूछन से पोंछने के बाद पुनः कोमल वस्त्र से पोंछना चाहिए। इस प्रकार करने से प्रतिमाएं उज्ज्वल रहती हैं। क्योंकि थोड़ा भी पानी रह जाने से वे प्रतिमाएँ श्याम हो जाती हैं। वह श्यामलता धीरे-धीरे सर्वत्र फैल जाती है। अधिक केसरयुक्त चन्दन से विलेपन करने से भी उन प्रतिमाओं की उज्ज्वलता बढ़ती है। पंचतीर्थी और चौबीसीपट्ट आदि में परस्पर स्नात्र जल के स्पर्श में किसी प्रकार के दोष की 'शंका नहीं करनी चाहिए। जैसे कि कहा है-'रायपसेरणी सूत्र' में सौधर्म देवलोक के सूर्याभदेव का अधिकार है। जीवाभिगमन में विजयानगरी के विजयादि देवता का अधिकार है। सभी जिनप्रतिमा और जिनेश्वर की दाढ़ों की पूजा के लिए कलश, मोरपीछी, अंगलूछन तथा धूपदानी आदि एक-एक उपकरण कहे गये हैं।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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