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________________ भाद्धविधि/३२ (९) शयन-खाट, (पलंग, कुर्सी), आदि की संख्या निश्चित करना। (१०) विलेपन–चन्दन, जवा, चुना, कस्तूरी आदि का अपने शरीर के उपभोग के लिए नियम करना, परन्तु देवपूजा में तिलक, हस्तकंकण, धूप आदि में कल्प्य है। (११) ब्रह्मचर्य-दिन या रात्रि में पत्नी आदि के अनुसार ब्रह्मचर्य का संकल्प करना । (१२) दिशा परिणाम–चारों दिशाओं में अथवा अमुक दिशा में क्रोश, योजन, कि.मी. आदि द्वारा जाने की सीमा निश्चित करना। (१३) स्नान-तैल-मालिशपूर्वक कितनी बार स्नान करना, उसकी मर्यादा करना । . (१४) भोजन-पकाये हुए अनाज और पक्वान्न आदि वस्तुओं का तीन सेर, चार सेर आदि का परिमाण निश्चित करना। खरबूजा आदि फल हों तो ज्यादा सेर होंगे। . यहाँ सचित्त की तरह द्रव्य आदि का भी नामग्रहणपूर्वक अथवा सामान्य से उसके परिमाण को यथाशक्ति निश्चित करना चाहिए। उपलक्षण से अन्य भी शाकफल, धान्य आदि का नियम और औसार आदि से होने वाले प्रारम्भ का नियम यथाशक्ति करना चाहिए। * पच्चक्खारण विधि ★ इस प्रकार नियम ग्रहण करने के बाद यथाशक्ति पच्चक्खाण लेना चाहिए। नवकारसी, पोरिसी आदि काल पच्चक्खाण सूर्योदय के पूर्व ही उच्चरित किये हों तो शुद्ध होते हैं, अन्यथा नहीं। अन्य पच्चक्खाण सूर्योदय के बाद भी हो सकते हैं। नवकारसी का पच्चक्खाण सूर्योदय से पूर्व लिया हो तो वह पच्चक्खाण आने पर अन्य भी पोरिसी आदि का पच्चक्खाण, पच्चक्खाण का समय आने के पहले ले सकते हैं। नवकारसी को उच्चरे बिना सूर्योदय के बाद कालपच्चक्खाण शुद्ध नहीं होता है। यदि सूर्योदय के पूर्व नवकारसी के बिना पोरिसी आदि का पच्चक्खाण किया हो तो उस पच्चक्खाण की पूर्ति के ऊपर दूसरा कालपच्चक्खाण शुद्ध नहीं होता है परन्तु उसके अन्दर तो शुद्ध होता है। यह वृद्धव्यवहार है। थोड़े ही आगार होने के कारण नवकारसी का पच्चक्खाण दो घड़ी का होता है, एक मुहूर्त के बाद भी नवकार के पाठ बिना भोजन करने पर पच्चक्खाण का भंग ही होता है, क्योंकि इसके पच्चक्खाण में नवकारसहित का उच्चारण किया जाता है। प्रमादत्यागी को क्षण भर भी पच्चवखाण बिना नहीं रहना चाहिए। नवकारसी आदि पच्चक्खाण पूर्ण होते ही ग्रन्थिसहित (गंठसी) आदि पच्चक्खाण कर लेना चाहिए। अनेक बार औषध आदि लेने वाले बाल-ग्लान आदि भी गंठसी आदि पच्चक्खाण कर सकते हैं। निरन्तर अप्रमत्तता का हेतु होने से यह पच्चक्खाण अत्यन्त लाभकारी है। नित्य मांस आदि में आसक्त एक बुनकर ने एक बार गंठसी पच्चक्खाण किया था, जिसके फलस्वरूप वह मरकर कपर्दीयक्ष बना था। कहा भी है-"जो अप्रमत्त प्राणी ग्रन्थिसहित पच्चक्खाण कर गाँठ बाँधते हैं, सचमुच उन्होंने स्वर्ग व अपवर्ग के सुख अपनी गाँठ में बाँध रखे हैं।"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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