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________________ श्राद्धविधि / २४ मर्दित एवं पूरे कणरहित जीरा, अजमा आदि को दो घड़ी तक मिश्र समझना चाहिए, उसके बाद उन्हें अचित्त मानने का व्यवहार है । अन्य भी अनेक पदार्थ जो प्रबल अग्नि के योग बिना प्रचित्त किये गये हों, उन्हें भी दो घड़ी तक मिश्र और उसके बाद अचित्त समझना चाहिए। जैसे- प्रासुक जल आदि । कच्चे फल, कच्चे धान्य तथा अत्यन्त गाढ़ मर्दित नमक आदि भी प्रायः श्रग्नि प्रादि प्रबल शस्त्र के बिना प्रासुक नहीं होते हैं । जैसा कि भगवती सूत्र के इक्कीसवें शतक के तीसरे उद्देश्य में कहा है "वज्रमय शिला के ऊपर वज्रमय पत्थर से थोड़े पृथ्वीकाय को इक्कीस बार पीसा जाय तो भी उसमें कुछ जीव स्पर्श बिना के रह जाते हैं (अर्थात् इक्कीस बार पीसने पर भी वह पृथ्वीकाय का टुकड़ा सचित्त रह सकता है) ।" योजन दूर से आई हुई हरड़, खारक, किशमिश, द्राक्ष, खजूर, काली मिर्च, पीपल, जायफल, बादाम, बायबिडंग, अखरोट के मीजा, जरदालू, पिस्ता, चीणीकबाब, स्फटिक के समान उज्ज्वल सेंधव आदि तथा साजी, भट्टी में पकाया गया नमक, कृत्रिम क्षार, कुम्भकार द्वारा मदित मिट्टी, इलायची, लौंग, जावित्री, शुष्क मोथा, कोंकण देश में पकाये हुए केले, उबाले हुए सिंघोड़े तथा सुपारी आदि सबको अचित्त मानने का व्यवहार देखा जाता है। श्री बृहत्कल्प में कहा है "नमक प्रादि सचित्त वस्तु जहाँ उत्पन्न हुई हो वहाँ से एक सौ योजन जमीन उल्लंघन करने के बाद वस्तु स्वतः प्रचित्त हो जाती है । " प्रश्न – प्रबल अग्नि आदि शस्त्र के प्रभाव में एक सौ योजन जाने मात्र से ही वह वस्तु चित्त कैसे हो जाती है ? उत्तर - जो जीव जिस क्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं, वे उसी क्षेत्र में जीते हैं । वहाँ से अलग हो जाने पर मार्ग में आहार आदि का प्रभाव होने से भी प्रचित्त हो जाते हैं। एक वाहन से दूसरे वाहन में डालने से, एक गोदाम से दूसरे गोदाम में गिराने से भी वे प्रचित्त हो जाते हैं । पवन, अग्नि, घूम आदि से भी लवण आदि प्रचित्त हो जाते हैं । लवरण के साथ 'आदि' पद से यह भय है कि हरिताल, मनःशिला, पीपर, खजूर, द्राक्ष, हरड़ प्रादि वस्तुएँ भी एक सौ योजन से आने पर प्रचित्त हो जाती हैं । इनमें से कुछ प्राचीर्ण हैं और कुछ अनाचीर्ण हैं । " पीपर, हरड़ आदि प्राचीर्णं कहलाती हैं तथा खजूर, द्राक्ष आदि अनाचीर्ण होने से ग्रहण नहीं की जाती हैं । वस्तु-परिरणमन के कारण गाड़ी में अथवा बैल आदि की पीठ पर से बारंबार नमक आदि को उतारने- चढ़ाने से, लवण आदि के भार के ऊपर मनुष्यों के बैठने से तथा बैल आदि के शरीर की गर्मी से भी उन वस्तुओं का परिणमन होता है । उन वस्तुनों के श्राहार का उच्छेद होने से भी उन वस्तुनों का परिणमन होता है ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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