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________________ श्राद्धविधि/२१ "अभ्यास से सभी क्रियाएँ शक्य हैं, अभ्यास से सभी कलाओं में निपुणता आती है। अभ्यास से ही ध्यान-मोन की साधना शक्य बनती है। अभ्यासी के लिए कोई वस्तु दुष्कर नहीं है।" निरन्तर विरति-परिणाम के अभ्यास से परलोक में भी उसकी प्राप्ति सुलभ बनती है। कहा भी है "इस जन्म में जीव जिस गुण-दोष का अभ्यास करता है, उस अभ्यास के योग से परलोक में भी उस गुण-दोष को प्राप्त करता है।" इस कारण विवेकी पुरुष को अपनी इच्छानुसार बारह व्रतों का स्वीकार करना चाहिए। यहाँ श्रावक-श्राविका के योग्य इच्छा-परिमाण की विस्तृत व्याख्या करनी चाहिए, ताकि सम्यग्बोध पूर्वक नियमों को स्वीकार करे तो नियम-भंग आदि दोष नहीं होंगे। नियम, विचार पूर्वक उतने ही ग्रहण करने चाहिए, जिनका पालन शक्य हो । . . सभी नियमों में सहसात्कार, अनाभोग आदि चार आगार (अपवाद) अवश्य रखने चाहिए, ताकि अनाभोग आदि से व्रत के विपरीत आचरण होने पर भी नियम भंग न हो, अतिचार ही लगे। जानबूझ कर व्रत से विपरीत पाचरण करने पर तो व्रत का भंग ही होता है। परवशता के कारण यदि जानबूझ कर भी नियम भंग हो जाय तो भी भविष्य में तो उस नियम का अवश्य पालन करना चाहिए। पंचमी, चतुर्दशी आदि तिथि के दिन उपवास करने का नियम हो...और दूसरी तिथि की भ्रान्ति से पंचमी आदि के दिन भूल से यदि सचित्त जल, तांबूल आदि मुंह में डाल दिया हो और बाद में आराध्य तिथि का ख्याल आ जाय तो मुख में रही वस्तु को भी निगलना नहीं चाहिए और उसे थूक कर अचित्त जल से मुखशुद्धि करके तप आराधना करनी चाहिए। हाँ! यदि भूल से पूरा भोजन ही कर लिया हो तो दूसरे दिन दण्ड निमित्त वह तप करना चाहिए और उस तप की पूर्णाहुति में उतना तप अधिक कर लेना चाहिए। इस प्रकार करने से सिर्फ अतिचार ही लगता है, व्रत-भंग नहीं होता है। तप के पाराध्य दिन को जानने के बाद भी अन्न निगल ले तो नियमभंग का दोष लगता है, जो नरकादि का हेतु बनता है । ... आज तप का दिन है या नहीं? अथवा यह वस्तु ले सकते हैं या नहीं? इस प्रकार सन्देहात्मक स्थिति हो तो कल्प्य के ग्रहण में भी नियमभंग का दोष लगता है । गाढ़ बीमारी में, भूत-पिशाच आदि की पराधीनता में अथवा सर्पदंश आदि से असमाधि के कारण तप न कर सके तो भी चौथे प्रागार (अपवाद) के उच्चारण के कारण नियमभंग नहीं होता है। इस प्रकार सभी नियमों में समझ लेना चाहिए। कहा भी है
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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