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________________ श्राद्धविधि/३३४ . . पैदा करने वाला और अपने वृत्तान्त को कहने की इच्छा वाले तपस्वी के मनोरथ रूपी रथ को तोड़ने में अपने प्रभंजन नाम को सार्थक करने वाला तथा महासमुद्र के अचानक पूर के जल की भांति सबको डुबोने वाला भयंकर पवन बहने लगा और धूल से पोपट व कुमार की आँखें बन्द कर सिद्धचौर की भांति उस पवन ने तापसकुमार का अपहरण कर लिया। ___ "हे विश्वजनाधार ! हे श्रेष्ठ आकृति वाले कुमार! विश्व के लोगों के मन के लिए विश्रान्ति स्थान ! महापराक्रमी ! जगत् की रक्षा करने में दक्ष ! इस भयंकर कठिनाई से मुझे बचाओ।" तब केवल इस प्रकार का अश्राव्य प्रलाप उन दोनों ने सुना। (२) कन्या का प्रात्मवृत्तान्त उसी समय युद्ध के लिए इच्छुक कुमार ने क्रोध में आकर कहा-"अरे ! मेरे प्राणजीवन इस तापस को हरण करके कहां जाते हो?" इस प्रकार बोलकर दृष्टिविष सर्प की भांति अत्यन्त विकराल तलवार को हाथ में धारण कर वह उसके पीछे दौड़ा ! सचमुच, वीर पुरुषों की यही निष्ठा होती है। बिजली की भांति वह कुमार वेग से दौड़ा। उसके बाद उसके अद्भुत चरित्र से आश्चर्यचकित होकर उस तोते ने कहा-"पाप चतुर होने पर भी भोलेपन से व्यर्थ क्यों दौड़ते हो? कहाँ यह तपस्वी कुमार ? और कहाँ यह तूफानी पवन ! जीव का अपहरण करने वाले कृतान्त की तरह यह पराक्रमी पवन पता नहीं उसे अपहरण करके कहाँ व कैसे ले गया ? इतनी देर में तो वह असंख्य योजन दूर जाकर कहीं छिप गया, अंतः हे कुमार ! आप शीघ्र लौट आयो।" - वेग से किये गये कार्य में निष्फलता मिलने के कारण लज्जित बना हुमा कुमार वापस पाया और अत्यन्त दु:खी बना वह जोर-जोर से विलाप करने लगा-"हे पवन! तुमने मेरे सर्वस्व प्रेमपात्र तापसकुमार का अपहरण कर सचमुच दावानल सुलगा दिया। हे मुनीन्द्र ! हे कुमारेन्द्र ! तुम्हारे मुख रूपी चन्द्र को देखकर मेरे नेत्र रूपी नीलकमल अब कब विकसित होंगे? हाय ! अमृत की लहर समान मन को खुश करने वाले स्निग्ध, मुग्ध और मधुर तुम्हारी दृष्टि का विलास अब मुझे कब प्राप्त होगा? मैं दरिद्र की भाँति कल्पवृक्ष के पुष्प समान एवं अमृत को भी जीतने वाले उसके मधुर वचनों को कैसे प्राप्त करूंगा?' स्त्री के वियोग से दुःखी पुरुष की भांति इस प्रकार विलाप करते हुए कुमार को तोते ने कहा- "हे कुमार ! सचमुच किसी ने अपनी शक्ति से उसके मूल रूप को छिपा दिया है, अतः वह दूसरा ही कोई है। उसके उन-उन विकार, आकार, मनोहरवाणी तथा दृष्टिपात प्रादि लक्षणों से तो मैं उसे कोई कन्या समझता हूँ। अन्यथा उसको पूछने पर उसकी आँखें अश्रुपूर्ण कसे हो गयीं ? यह तो स्त्रियों का ही लक्षण है, उत्तम पुरुषों में यह बात सिद्ध नहीं होती है। यह पवन भी घोरमांधी नहीं है, किन्तु कोई दिव्य वस्तु है, अन्यथा उस तापसकुमार की भाँति उसने हम दोनों का अपहरण क्यों नहीं किया ? वह कोई धन्या कन्या है, किन्तु कोई दुष्ट देव अथवा पिशाच विडम्बना कर रहा है। वास्तव में, दुर्दैव के आगे कौन समर्थ है ? दुष्ट ग्रह (जाल) से मुक्त होने पर वह तेरे साथ ही विवाह करेगी। क्योंकि जिसने कल्पवृक्ष देख लिया हो वह अन्य वृक्ष पर प्रीति कैसे कर सकता है ?"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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