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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/३३३ हरी-कुछ सूखी सुपारियाँ, नागरवेल के चौड़े व निर्मल पान, इलायची, लौंग, लवलीफल, जायफल आदि तथा भोगसुख के लिए कमल (शतपत्र), अशोक, चम्पक, केतकी मालती, मल्लिका, कुन्द, मचकुन्द, विविध प्रकार के सुगन्धित कमल, दमनक, कपूर तथा कस्तूरी आदि प्रशस्त पदार्थ लाये। सभी ऋतुओं के पुष्प-फल वहाँ उपलब्ध थे, परन्तु भक्ति व प्रीति जितनी भी की जाय वह सब थोड़ी ही है । चित्त की विचित्र रुचियाँ होती हैं, अतः उसने सभी वस्तुएँ उसके सामने रख दीं। कुमार ने तापसकुमार की भक्ति को स्वीकार करने के लिए उन सब वस्तुओं पर आदरपूर्वक दृष्टि डाली और उसने उन सब वस्तुओं को आश्चर्यकारी मानकर थोड़ा-थोड़ा सबका उपयोग किया क्योंकि इस प्रकार ही दाता की मेहनत सफल होती है। कुमार के बाद तापसकुमार ने पोपट के योग्य फल पोपट को भी खिलाये। अश्व के योग्य वस्तुएँ अश्व को भी खिलायीं जिससे वह भी श्रममुक्त बना । सच है, महापुरुष कभी पौचित्य का परित्याग नहीं करते हैं । उसके बाद कुमार के मनोभाव को जानकर उस महान् तोते ने प्रोतिपूर्वक तापसकुमार को कहा- "हे महर्षि ! विकसित और लोमहर्षक इस प्रकार के नवयौवन में असम्भावनीय यह तापसव्रत क्यों स्वीकार किया है ? कहाँ तो समस्त सम्पदाओं के किले समान आपकी आकृति और कहाँ संसार का तिरस्कार करने वाला यह दुष्कर व्रत । चतुरता एवं सुन्दरता की इस सम्पदा को जंगल में पैदा हुए मालती पुष्प की भाँति आपने पहले से ही निष्फल क्यों किया है। दिव्य अलंकारों और भव्य वेष के योग्य, कमल से भी कोमल यह शरीर अत्यन्त कठोर वल्कल की पीड़ा को कैसे सहन करता है? दर्शक की दृष्टि के लिए हरिण के बन्धन समान यह सुकोमल केशपाश उत्कट जटाबन्ध के सम्बन्ध के लिए योग्य नहीं है। यह आपका सुन्दर तारुण्य और पवित्र लावण्य नवीन भोगफलों से शून्य होने के कारण हमें करुणा उत्पन्न करता है। हे तपस्वी ! यह दुष्कर तप आपने वैराग्य से, कपट से, भाग्ययोग से, दुर्भाग्य से अथवा किसी महातपस्वी के शाप देने से स्वीकार किया है, सो कहो। पोपट की यह बात सुनकर अन्तर के दुःख को वमन करने की भाँति आँखों में से निरन्तर अश्रुधारा को बहाता हुआ गद्गद होकर वह तापसकुमार बोला- "हे श्रेष्ठ पोपट ! हे कुमारेन्द्र ! इस विश्व में आप दोनों के समान और कौन है क्योंकि मेरे जैसे कृपापात्र पर आपकी कृपादृष्टि स्पष्ट नजर आ रही है। अपने एवं अपने सम्बन्धियों के दुःख में तो कौन दुःखी दिखाई नहीं देता है, परन्तु दूसरे के दुःख से दुःखी होने वाले तो इस तीन जगत् में दो-तीन ही होंगे। __ कहा भी है-स्थान-स्थान पर हजारों शूरवीर हैं, अनेक विद्याविशारद हैं और कुबेर को भी परास्त कर दे ऐसे श्रीमन्त लोग भी बहुत हैं, परन्तु किसी अन्य दुःखी व्यक्ति के दुःख को देखकर अथवा सुनकर जिनका मन दुःखी हो जाता है, ऐसे सत्पुरुष तो जगत् में पांच-छह ही हैं । निर्बल, अनाथ, दीन, दुःखी और दूसरों से पराभव पाये हुए व्यक्तियों की रक्षा करने वाले, सत्पुरुषों के सिवाय और कौन है ? अतः हे कुमार! अपना सारा वास्तविक वृत्तान्त तुम्हारे सामने कहता हूँ। निर्दम्भ विश्वास के स्थान वाले व्यक्ति के आगे छिपाने योग्य क्या है ? ___इसी बीच महाउत्पात के दुष्ट पवन की भाँति असह्य, मदोन्मत्त हाथी की भांति वन को मूल से ही उखाड़ने वाला, निरन्तर उछलती हुई धूल के पटल से तीनों जगत् को भी मानों धूम से व्याप्त करने वाला, अत्यन्त असह्य धूत्कार की भयंकर आवाज से दिग्गजेन्द्रों के कान में भी ज्वर
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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