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________________ श्राद्धविधि / ३२४ श्रीग्राम गाँव में आकर कुछ दिन बाद वह अपने गाँव जा रहा था तब तुमने हास्य से कैदी के समान रोककर उसे कहा - "तुम यहीं रहो, गाँव की चिन्ता करने की जरूरत नहीं है । मेरे होते व्यर्थ ही तुम्हें चिन्ता करने की क्या जरूरत है ?" सौतेला और डरपोक होने से उसने सोचा- "हाय ! मेरा राज्य चला गया। मैं यहाँ क्यों आया ? अब मैं क्या करूंगा ?" इस प्रकार वह अत्यन्त व्याकुल हो गया। कुछ समय बाद तुमने उसे छोड़ दिया, तब उसके जी में जी आया। उस समय तुमने हास्य से भी दारुरण कर्म का बंध किया था । उस कर्म के उदय से ही तुम्हें भी राज्य भ्रंश का अत्यन्त दुःख हुआ । अभिमानी व्यक्ति गर्व से सांसारिक क्रियाएँ करते हैं और उनका परिणाम आने पर छलांग चूके हुए बन्दर की तरह दीन बनते हैं । मुनि भगवन्त उस चन्द्रशेखर की खराब चेष्टाओं को जानते थे, परन्तु शुकराज के नहीं पूछने के कारण उन्होंने कुछ नहीं कहा । जिनेश्वर भगवन्त प्रश्न पूछे बिना इस प्रकार की बातें नहीं करते हैं । सर्वत्र उदासीनता ही केवलज्ञान का फल है । बालक की तरह पिता के चरणों में लगकर शुकराज बोला - " हे तात ! श्रापके देखते हुए भी यह राज्य कैसे चला गया ?" "साक्षात् धन्वन्तरि वैद्य होने पर भी यह रोग कैसे ? कल्पवृक्ष पास में प्रत्यक्ष होने पर भी यह दरिद्रता कैसे ? सूर्य का उदय होने पर अन्धकार की पीड़ा कैसे ? हे ईश ! अतः आप राज्यप्राप्ति का आपत्तिरहित उपाय बताइए ।" इस प्रकार के वचनों से जब उसने अत्यन्त आग्रह किया तब प्रभु ने कहा - "धर्मकार्य से सभी कठिन कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं । यहाँ पास में ही विमलाचल नाम का प्रथम तीर्थ है। इस तीर्थ के नाथ आदिनाथ प्रभुको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके व स्तुति करके यदि इसी पर्वत की गुफा में छह मास तक परमेष्ठि- महामंत्र का ध्यान करो तो उससे सर्वसिद्धि हो सकती है। इसके प्रभाव से भयभीत सियार की भाँति विफल हुआ है कपट जिसका, ऐसा शत्रु शीघ्र ही दूर चला जाता है । गुफा में जब महातेज प्रगट हो तब कार्यसिद्धि समझ लेना । अपने दुर्जय शत्र ु के भी जय का यह उपाय है। इस बात को मन में धारण कर लो।" यह सुनकर पुत्रहीन को पुत्रप्राप्ति की तरह उसे अत्यन्त खुशी हुई । उसके बाद वह विमान में आरूढ़ होकर श्री विमलाचल पर गया और वहाँ योगीन्द्र की तरह निश्चल होकर पापहारी मंत्र का उसने जाप किया । यथोक्त रीति से छह मास बीतने पर अपने प्रताप के उदय की भाँति उसने अत्यन्त प्रकाश देखा । उसी समय चन्द्रशेखर की गोत्रदेवी प्रभावहीन हो गई और उसने चन्द्रशेखर को कहा - "तुम अपने स्थान पर चले जाओ, तुम्हारा शुक रूप चला गया है । ” – इस प्रकार कहकर वह भी चली गयी और उसका भी अपना मूल रूप हो गया । लक्ष्मी के चले जाने से उद्विग्न और चिन्तामग्न की तरह वह चोर की भाँति बाहर निकल
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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