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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / ३२३ चिन्तातुर शुकराजा अपनी दोनों स्त्रियों के साथ अपने आपको मानरहित मानता हुआ विमान में चढ़कर आकाशमार्ग से अन्यत्र चला गया । खुश होकर मंत्री कपटी शुकराजा के पास गया और उसके गमन की बातें कह दीं जिन्हें सुनकर वह कामी खुश हो गया । पोपट की तरह संभ्रमपूर्वक आकाश में परिभ्रमण करता हुआ, पत्नियों की प्रेरणा होने पर भी शर्म के कारण वह श्वसुर के नगर में नहीं गया । "अपने पद से भ्रष्ट व्यक्ति को अपने परिचित के घर और विशेषकर श्वसुर के घर नहीं जाना चाहिए, क्योंकि वहाँ तो आडम्बर से ही जाना उचित है ।" कहा है- "सभा में, व्यवहार में, शत्रु के सम्मुख, श्वसुर के घर, स्त्री के पास व राजकुल में आडम्बर की ही पूजा होती है ।" विद्याओं से पूर्ण भोग की सामग्री होने पर भी चिन्ता से दुःखी होकर उसने छह मास शून्य वास से पूर्ण किये । अहो ! बड़े पुरुषों पर भी कैसी-कैसी आपत्तियाँ आती हैं । सचमुच, सभी दिन सम्पूर्ण सुख वाले किसको होते हैं ? कहा है- "कौन दोषपात्र नहीं होता ? जन्मा हुना कौन नहीं मरेगा ? किसने कष्ट प्राप्त नहीं किया ? और किसको निरन्तर सुख है ?" एक बार सौराष्ट्र देश में भ्रमण करते समय शुकराज का विमान पर्वत से स्खलित नदी के प्रवाह की भाँति स्खलित हो गया । व्याकुलहृदयी शुकराज ने सोचा - "अहो ! यह तो जले हुए अंग पर घाव समान है, गिरे हुए के ऊपर प्रहार है तथा घाव के ऊपर क्षार डालने के समान है ।" उसके बाद शक्तिमान् वह विमान में से बाहर आया और विमान के स्खलन का कारण पता करता तभी उसने मेरु पर्वत पर रहे कल्पवृक्ष की भाँति स्वर्णकमल पर रहे और देवताओं से सुसेवित केवली बने अपने पिता मुनि को देखा । उसने प्रत्यन्त भक्तिपूर्वक पिता मुनि को प्रणाम किया । स्नेह से उसकी आँखों में आँसू आ गये । उसने पिता को अपने राज्य भंग का कारण पूछा । "मनुष्य अपने पितादि, प्रिय मित्र, स्वामी तथा अपने प्राश्रित को अपने दुःख निवेदन कर क्षण भर सुख का अनुभव करता है ।" गुरु ने कहा - " यह सब पूर्व जन्म के कर्म का फल है ।" उसने कहा - " मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया ?" केवली भगवन्त ने कहा - " जितारि के पूर्वभव में तू भद्रक भाव को धारण करने वाला श्रीग्राम नाम के गाँव में न्यायनिष्ठ ठक्कर था । पिता द्वारा दिये गये दूसरे गाँव का मालिक तुम्हारा दूसरा सौतेला भाई था, वह प्रकृति से ही डरपोक था ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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