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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / ३०३ वह चम्पक वृक्ष की छाया में निष्कम्प होकर बैठ गया । उसके एक प्रोर वेश्या और दूसरी और वह कन्या बैठी हुई थी - वह उन दोनों से स्नेहभरी बातें करने लगा । इसी बीच चतुराई से अनेक बंदरियों के साथ कामक्रीड़ा करता हुआ एक बंदर वहाँ आ श्रीदत्त ने उसे देख उस वेश्या रत्न को पूछा - " क्या ये सब बन्दरियाँ इसी बन्दर की स्त्रियाँ हैं ?” सुवर्णरेखा ने कहा - " हे दक्ष ! तिर्यंचों के विषय में क्या पूछना ? इसमें कोई इसकी माता होगी, कोई बहिनें होंगी और कोई इसकी पुत्रियाँ भी होंगी ।" गया । यह बात सुन शुद्ध चित्त वाले श्रीदत्त ने उदात्त वाणी से कहा - "अविवेकी पशुओंों के निन्दनीय जीवन को धिक्कार हो, जहाँ माँ, बहिन और पुत्री का भी विभाग नहीं रहा हुआ है ? उस पापी जन्म और जीवन से भी क्या, जहाँ कृत्य प्रकृत्य के विवेक की प्राप्ति में मुग्धता रही हुई है ।" यह बात सुनकर कोई अभिमानी वादी किसी के प्राक्षेप वचन को सुनकर जैसे जवाब देता है, उसी प्रकार जाता हुआ वह बन्दर पीछे मुड़कर इस प्रकार उसे बोला "अरे दुष्ट ! दुराचारी ! दूसरे के दोष कहने वाले ! तुझे पर्वत के शिखर पर आग दिखाई देती है और अपने पैरों के नीचे जलती आग दिखाई नहीं देती है ।" कहा भी है- "राई और सरसों जितने भी दूसरों के छिद्र दिखाई देते हैं और स्वयं के बिल्व प्रमाण छिद्र भी दिखाई देने पर नहीं देखता है ।" " अरे ! अपनी पुत्री व माता को अपने दोनों ओर बिठाकर तथा अपने मित्र को सागर में डालकर भी मेरी इस प्रकार निन्दा करते हो ।" इस प्रकार बोलकर उल्लसित होता हुआ वह अपने समूह में चला गया । यह बात सुनकर वज्र से श्राहत की तरह श्रीदत्त सोचने लगा । (६) सत्य का घटस्फोट श्रीदत्त ने सोचा- “असमंजस बोलने वाले उसके वचन को धिक्कार हो । यह कन्या तो मुझे समुद्र में प्राप्त हुई है, यह मेरी पुत्री कैसे हो सकती है ? और यह सुवर्णरेखा भी मेरी माता कैसे हो सकती है ? मेरी माता सोमश्री तो इससे कुछ ऊँची है । और वह तो कुछ श्याम है, परन्तु यह तो उसके समान नहीं हैं । वह और वर्ष के अनुमान से शायद यह कन्या मेरी पुत्री हो सकती है । परन्तु यह मेरी माता तो नहीं हो सकती ।" इस प्रकार विचार कर उसने उसी ( वेश्या को) को पूछा, तब वह बोली-"यहाँ तुम्हें कौन पहिचानता है ? हे पण्डितपुरुष ! पशु की बात से तुम भ्रम में कैसे पड़ गये हो ?” उसके इस प्रकार कहने पर शंकित चित्तवाला श्रीदत्त खड़ा हो गया । "अनर्थं की शंका होने पर बुद्धिमान पुरुष को प्रवृत्ति करना उचित नहीं है । गहराई का पता नहीं होने पर कौन व्यक्ति जल में प्रवेश करता है ?" इधर-उधर घूमते हुए उसने किसी मुनि को देख लिया। मुनि को नमस्कार कर उसने कहा - " बन्दर ने मुझे भ्रम में डाल दिया है । आप अपने ज्ञान से मेरा उद्धार करो।”
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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